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Showing posts from September, 2013

आवाजें दुरुस्त हैं............

आवाजें दुरुस्त हैं मगर चेहरे खामोश हैं कितने पहर बीत गए और आगे कितने रोज़ हैं आँखे खुली रखने में भी कोई फायदा नहीं है यहाँ पर हर एक शख्स रहता बेहोश है कुछ मरम्मत होगी पलों के दरम्यान कभी आजकल मेरी ज़िन्दगी की यही सोच है एक तबका नहीं है ज़िम्मेदार सभी के इशारे हैं अरे यहाँ पर तो सभी लोगों का दोष है आहिस्ता से शामिल हुआ अनकहे सवालों में और जवाब तलाशने  में सबका जोर है खुद क्या करेंगे ये तो ठंडे बस्ते में डाल दिया मगर दूसरों की ताका-झांकी में सबको संतोष है कोई तारीफ़ ना करे तो इतना चल जाता है मगर कोई नज़रों से से गिराए तो ज़िन्दगी बोझ है डाकिया ला रहा है चिट्ठियां बहुत दूर से पर दिल से लिखे संदेशों की अभी भी खोज है गिरने दो अगर नैतिकता गिरती है , क्या कर सकते हैं इतने नीच हो चुके हैं की रहता नहीं होश है धुंए भी शहर में हवा सा फैलते हैं आजकल शायद चीखते हुए लोगों की मौत का ये शोर है जो कोई एक हाथ उठता भी है तो दबा दिया जाता है लोगों की सोच भी अब हो चुकी कमज़ोर है शराब की एक महफ़िल और बिखरते अनाथ बच्चे वाह ! मेरे शहर की ये तस्वीर बड़ी बेजोड़ है लिख...

कुछ रूका-रूका सा......

बेवजह हुई थी शुरुआत कि अब दिल नहीं लगता कुछ इस तरह से हुई बात कि अब दिल नहीं लगता मुझे मेरी काबिलियत पर हद से ज्यादा यकीन था मगर ये भूली हुई है बात कि अब दिल नहीं लगता पत्थरों सी सख्त हैं कई लोगों की फितरतें सूखे हुए हैं जज़्बात कि अब दिल नहीं लगता उजली धूप से बरसती थी अजब सी रंगत कभी यूँ बेरंग हुई है रात कि अब दिल नहीं लगता पहले दर्द पर मरहम था और ख़ुशी पर खिलखिलाहट पर खामोश हो गए एहसास कि अब दिल नहीं लगता गहरी है लोगों की जड़ें दूर तक चालबाजी में और झूठ की लगी सौगात कि अब दिल नहीं लगता ईमान को रखो कि दोस्तों का घर नहीं चलता वो सच पर करें आघात कि अब दिल नहीं लगता कारनामे हैं बेईमानी के और गिरी हुई साख है फिर पहनों झूठ के नकाब कि अब दिल नहीं लगता सूने आंगन में अब धूलों का बसेरा है नहीं है रोशन बारात कि अब दिल नहीं लगता कभी बस्तों के बोझ में , कहीं कूड़े में बिखरता बचपन गुम हुए वो शरारती अंदाज़ कि अब दिल नहीं लगता बहुत शोर है ज़िंदगी में कि सुकून नहीं मिलता खुशियाँ हुई नाराज़ कि अब दिल नहीं लगता हम इंसान है कोई मशीन नहीं , ये समझो तो सही मत करो बकवास...

आफत

पास बैठे थे याद में ठोकरों को झेलते रह गए हैं बस यहीं ज़िन्दगी से खेलते चाँद भी भरमाता है रोशनी देकर यूँ ही हट गया सूरज जो फिर हाथ वो मलते रहे रख-रखाव ठीक है , फिर भी कितने नुक्स हैं अपनी ऊँगली में  कई गलतियाँ गिनते रहे ये तो खालिस है कहीं कुछ उदासी मामला वर्ना हम तो  इस सफ़र में रोज़ यूँ फंसते रहे कुछ नया नहीं यहाँ,सब नज़र के धोखे हैं चल रहे हैं सब यहाँ पर जैसे कीड़े रेंगते धूल आती जा रही नज़रों के ही साथ में अब बचा कुछ भी नहीं जिसको हम यूँ देखते अब कहाँ पर है ईमान , कहाँ सच का साथ है कौड़ी-कौड़ी लाख में सब यहाँ पर बेचते वक़्त है ये बेरहम ; बक्श दे बड़ी बात है नहीं तो हर एक डगर पर रोज़ हम मरते रहे मन बुरा जीता है अब , हारी तो अच्छाई है क्यों न हम सब सोच कर मन को नहीं टटोलते बुरे के संग हो गए हैं इस तरह ये लोग भी सोचा जिसने भला है उसको दिल से फेंकते कितनी आफत है की मैं जी रहा फिर भी यहाँ मौत भी है बेशरम जो जा रही है लौट के राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

नीयत

राख की ढेरी बची है जो सब तरफ फ़ैल गई गरजने वाली सुबह भी रात में बदल गई कौन सा ये मोड़ है कुछ समझ नहीं आ रहा छोडो हम भी क्या करें जब राहतें भी थक गई कर्कशी आवाज़ है जो चुभ रही है लोगों में ठिठकती ख़ामोशी भी देखो विष नदी सी बह गई ये समां खिसिया रहा , बात को समझा नहीं मतलबी इस दुनिया में सभी को अपनी पड़ी फिर वही गंतव्य है जहाँ से उठते थे पग और धडकनों की लौ में अब सांस भी जलने लगी चने लोहे के हैं और पत्थरों से भाव हैं आदमी की नीयत न जाने कहाँ तक यूँ बढ़ गई जा रहा हूँ यादों के परिवेश में कुछ खोजने वहां पर भी सूखता सा खून है और कुछ नहीं राजेश बलूनी' प्रतिबिम्ब'

बेरहम

बेख्याल लम्हे सहेजकर गुज़रती ये शाम है सांस को चलाकर रखूँ ज़िन्दगी का काम है सड़क पर पड़ी लाश को देखने नहीं आया कोई यूँ हादसों में चुप रहना तो अब होता आम है ज़ालिम है ज़माना ये इल्म है मुझे भी मगर लडूंगा इस से तो फिर ज़िन्दगी हराम है कहीं थी इंसानियत अब कहाँ दबी पड़ी है उसके गुम होने का तो अब चर्चा आम है बड़ा नाम हुआ मेरा कि मैं छुपकर चोरी करता हूँ क्या हुआ जो मेरी शख्सियत इतनी बदनाम है मुक्कदर ने बहुत तकलीफ दी मुझे ताउम्र चलो अब तो हाथों की लकीरों में थोडा आराम है बंदिशें लग रही हैं हुनर दिखाने में सभी पर भारत नहीं ये तो उभरता हुआ तालिबान है सौ सिरों के सैकड़ों रावण खड़े है आस पास पता नहीं अब किस जगह पर छुपे मेरे राम हैं लोकतंत्र भी धराशायी हो रहा है दिन-ब-दिन और तानाशाही से दबा हुआ सारा आवाम है डर रहा क्यों आम जन और रो रहा बेबस यहाँ सोच लो अब इस डगर पर एक नया संग्राम है तिलमिला रहा है मन कि जी रहे बेशर्मी से हैं कौन करे झंझट दुनिया में , किस पर रहता गुमान है बेरहम सच्चाई भी कुरेदती है हमेशा मुझे क्योंकि झूठ के बाज़ार में अपना बड़ा नाम है राजेश...