बेरहम


बेख्याल लम्हे सहेजकर गुज़रती ये शाम है
सांस को चलाकर रखूँ ज़िन्दगी का काम है

सड़क पर पड़ी लाश को देखने नहीं आया कोई
यूँ हादसों में चुप रहना तो अब होता आम है

ज़ालिम है ज़माना ये इल्म है मुझे भी
मगर लडूंगा इस से तो फिर ज़िन्दगी हराम है

कहीं थी इंसानियत अब कहाँ दबी पड़ी है
उसके गुम होने का तो अब चर्चा आम है

बड़ा नाम हुआ मेरा कि मैं छुपकर चोरी करता हूँ
क्या हुआ जो मेरी शख्सियत इतनी बदनाम है

मुक्कदर ने बहुत तकलीफ दी मुझे ताउम्र
चलो अब तो हाथों की लकीरों में थोडा आराम है

बंदिशें लग रही हैं हुनर दिखाने में सभी पर
भारत नहीं ये तो उभरता हुआ तालिबान है

सौ सिरों के सैकड़ों रावण खड़े है आस पास
पता नहीं अब किस जगह पर छुपे मेरे राम हैं

लोकतंत्र भी धराशायी हो रहा है दिन-ब-दिन
और तानाशाही से दबा हुआ सारा आवाम है

डर रहा क्यों आम जन और रो रहा बेबस यहाँ
सोच लो अब इस डगर पर एक नया संग्राम है

तिलमिला रहा है मन कि जी रहे बेशर्मी से हैं
कौन करे झंझट दुनिया में , किस पर रहता गुमान है

बेरहम सच्चाई भी कुरेदती है हमेशा मुझे
क्योंकि झूठ के बाज़ार में अपना बड़ा नाम है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'














 



















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