कुछ रूका-रूका सा......
बेवजह हुई थी शुरुआत कि अब दिल नहीं लगता
कुछ इस तरह से हुई बात कि अब दिल नहीं लगता
मुझे मेरी काबिलियत पर हद से ज्यादा यकीन था
मगर ये भूली हुई है बात कि अब दिल नहीं लगता
पत्थरों सी सख्त हैं कई लोगों की फितरतें
सूखे हुए हैं जज़्बात कि अब दिल नहीं लगता
उजली धूप से बरसती थी अजब सी रंगत कभी
यूँ बेरंग हुई है रात कि अब दिल नहीं लगता
पहले दर्द पर मरहम था और ख़ुशी पर खिलखिलाहट
पर खामोश हो गए एहसास कि अब दिल नहीं लगता
गहरी है लोगों की जड़ें दूर तक चालबाजी में
और झूठ की लगी सौगात कि अब दिल नहीं लगता
ईमान को रखो कि दोस्तों का घर नहीं चलता
वो सच पर करें आघात कि अब दिल नहीं लगता
कारनामे हैं बेईमानी के और गिरी हुई साख है
फिर पहनों झूठ के नकाब कि अब दिल नहीं लगता
सूने आंगन में अब धूलों का बसेरा है
नहीं है रोशन बारात कि अब दिल नहीं लगता
कभी बस्तों के बोझ में , कहीं कूड़े में बिखरता बचपन
गुम हुए वो शरारती अंदाज़ कि अब दिल नहीं लगता
बहुत शोर है ज़िंदगी में कि सुकून नहीं मिलता
खुशियाँ हुई नाराज़ कि अब दिल नहीं लगता
हम इंसान है कोई मशीन नहीं , ये समझो तो सही
मत करो बकवास कि अब दिल नहीं लगता
गीत भी बेसुरे हो गए हैं जो कभी मधुर थे
बचे नहीं कोई अलफ़ाज़ कि अब दिल नहीं लगता
सब जगह दंगे हैं, फसाद हैं , खून के छीटें हैं शहर में
माहौल हुआ खराब कि अब दिल नहीं लगता
समंदर के भरे हुए धारों को क्यों पियूं मैं आखिर
जो बुझती नहीं है प्यास कि अब दिल नहीं लगता
सवाल बहुत हैं सरकार से , मगर उम्मीद बिलकुल नहीं है
और मिलते नहीं जवाब कि अब दिल नहीं लगता
मौत से मिलने की ख्वाहिश बढ़ रही है धीरे-धीरे
ज़िन्दगी हुई बेकार कि अब दिल नहीं लगता
रिश्तों की बंदिशों में कबसे बंधे हुए हैं हम
करो हमें आज़ाद कि अब दिल नहीं लगता
बेचैन सी होती है आवारगी और सुस्त सा वजूद है
बिखरे हुए हैं ख्वाब कि अब दिल नहीं लगता
कुछ रुका-रुका सा सफ़र, कुछ ठहरी हुई सी ज़िन्दगी
होते हैं आसपास कि अब दिल नहीं लगता
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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