आफत
पास बैठे थे याद में ठोकरों को झेलते
रह गए हैं बस यहीं ज़िन्दगी से खेलते
चाँद भी भरमाता है रोशनी देकर यूँ ही
हट गया सूरज जो फिर हाथ वो मलते रहे
रख-रखाव ठीक है , फिर भी कितने नुक्स हैं
अपनी ऊँगली में कई गलतियाँ गिनते रहे
ये तो खालिस है कहीं कुछ उदासी मामला
वर्ना हम तो इस सफ़र में रोज़ यूँ फंसते रहे
कुछ नया नहीं यहाँ,सब नज़र के धोखे हैं
चल रहे हैं सब यहाँ पर जैसे कीड़े रेंगते
धूल आती जा रही नज़रों के ही साथ में
अब बचा कुछ भी नहीं जिसको हम यूँ देखते
अब कहाँ पर है ईमान , कहाँ सच का साथ है
कौड़ी-कौड़ी लाख में सब यहाँ पर बेचते
वक़्त है ये बेरहम ; बक्श दे बड़ी बात है
नहीं तो हर एक डगर पर रोज़ हम मरते रहे
मन बुरा जीता है अब , हारी तो अच्छाई है
क्यों न हम सब सोच कर मन को नहीं टटोलते
बुरे के संग हो गए हैं इस तरह ये लोग भी
सोचा जिसने भला है उसको दिल से फेंकते
कितनी आफत है की मैं जी रहा फिर भी यहाँ
मौत भी है बेशरम जो जा रही है लौट के
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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