राख की ढेरी बची है जो सब तरफ फ़ैल गई
गरजने वाली सुबह भी रात में बदल गई
कौन सा ये मोड़ है कुछ समझ नहीं आ रहा
छोडो हम भी क्या करें जब राहतें भी थक गई
कर्कशी आवाज़ है जो चुभ रही है लोगों में
ठिठकती ख़ामोशी भी देखो विष नदी सी बह गई
ये समां खिसिया रहा , बात को समझा नहीं
मतलबी इस दुनिया में सभी को अपनी पड़ी
फिर वही गंतव्य है जहाँ से उठते थे पग
और धडकनों की लौ में अब सांस भी जलने लगी
चने लोहे के हैं और पत्थरों से भाव हैं
आदमी की नीयत न जाने कहाँ तक यूँ बढ़ गई
जा रहा हूँ यादों के परिवेश में कुछ खोजने
वहां पर भी सूखता सा खून है और कुछ नहीं
राजेश बलूनी' प्रतिबिम्ब'
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