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Showing posts from July, 2013

साँस का साथी

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छूटी हुई शामें दरख्तों पर फैलती हैं गफ़लत में यादों का धुआं लिए एक सूरज का रहमो करम था उजाले कि रुत में हैं दिन ये गुज़ारे मगर चाँद है कि अँधेरे पिए बाग़ों का घर है पानी के दम पर छोटी ये घासें उखड ही न जाएं मिटटी जो गीली है अंधड़ लिए सूखे ख़ुशी के झरोखों में बंद था एक बार एक नया सा शहर वो पुराने किलों का मलबा लिए एक ओर जैसे शर्म-ओ-ज़हन है काश कि रहती घड़ियाँ यहीं तक मगर वक़्त के हैं यही तो गिले ज़द्दोज़हद है ये कैसी सयानी बरकत क्या होती गुनाहों की शह में मिज़ाज भी हैं सख्ती से बदले हुए रखता समंदर का बिखरा किनारा टूटे हुए पत्थरों की निशानी और सीने में अश्कों के मंज़र लिए अलसा गया है अम्बर कहीं पर बादल जो काले छाए रहे हैं अब तो तमन्ना में जीते रहे मौसम लगा है गर्दिश का जैसे धुआं भी कहानी सा उड़ता हुआ पन्ने सवालों से घिर ही गए सिरे पर बैठी हुई सी लगी है या हाशिये पर लेटे हुए जिंदगानी सांस के साथी भी छूट गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ज़र्रे

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एक ज़र्रा ज़िन्दगी का  कहता है मुझे छोड़ दो और ग़मों की रुत से कुछ हंसी निचोड़ लो छूटते हुए गलियारे हमेशा याद रहेंगे लम्हों से आज इतना बोल दो इतनी ठोकरों से पैरों को यकीन हो गया कि अपने नाखूनों से अब पत्थरों को तोड़ दो यादों का मलबा सुर्ख दिमाग के घेरे में है अब इसका दिल से भी नाता जोड़ दो हाँ ! यहीं बैठा था किताबों को हाथ में लेकर बैगैर हाथों को उठाये पन्नों को मोड़ दो अब चालें नहीं बची है शतरंज के खेल में चलो अब ये खेल खेलना भी छोड़ दो पतंग टूट कर डोर से अलग हो गयी अब धागे से भरी चखरी को भी तोड़ दो नसें खौलती है तो क्या करूँ मैं भी शरीर भी अब नहीं कहता कि बोझ ढो जो चल रहा है चलने दो हमें पर कोई फर्क नहीं कोई नहीं चाहता कि किसी और के बारे में सोच लो कितने दर्द और कितने मरहम ढूंढता फिरूं मैं खुदा से कहता हूँ मुझे ये बख्शीश रोज़ दो बस बहुत हो गया अब चलता हूँ क्या करूँ कहीं ऐसा न हो कि इसे पढ़कर तुम सर नोच लो राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

एक आधा अधूरा

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गर्म है कि रिस्ता धुआँ घुल गया है चाँद मे कुछ सूरज के टुकड़े गल गये हैं शाम मे बेबाक ही की थी ज़िंदगी बसर मैने अब कुछ डरा सहमा रहूँगा मकान मे ज़रा ज़िल्द फट रही है कहकहों के पन्नों की अब रहेंगे वो कहीं पुरानी मुस्कान मे देनदारी कई हो चली हैं कि क़र्ज़ ज़ख़्मों का है और ख़ुशफ़हमी रहे दर्द के निशान मे खराशें है दर्द के कई अनकहे लफ़्ज़ों मे मरहम भी मिलेगा अब ज़हर की दुकान मे समेटा तो था गुफ्तगू को मन के झरोखे मे मगर तल्खियाँ बरस चुकी मेरी ज़ुबान मे एक छूटा सा रेशम का बना हुआ झोंका शायद अपने दायरे से बदल गया तूफान मे अश्क़ के सिकुड़ते जज़्बे ,चेहरों की घटी सी रंगत यही अब बस चुके है आस पास जहान मे शोर के बीच मे पनपता एक शहर का मिज़ाज कहानी बनाता है बिखरती दास्तान मे कुछ भरे से गमों के लतीफ़े हैं ज़हन मे और कुछ सुलगते ज़ज़्बात भी रहे हैं इंसान मे बेदखल मसला है कि ख्वाब की रहगुज़र नहीं ढूँढ लूँगा उसे भी अपने आशियाँ मे कवायद है मेरी की घुट के कहीं ना जियूँ मगर अतीत की यादें भी तो हैं दुनियाँ मे एक आधा अधूरा जज़्बात का समंदर है और बूँदें भी सरकती है मेरे

भ्रष्टाचार =कॉंग्रेस भाग-1

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क्या हो रहा है यहाँ पर सभी बेख़बर हैं ज़िंदगी भी हो रही किसी तरह बसर है एक दूसरे पर खींचते हो दो धारी तलवारें सब तुम आदर और सम्मान लेकिन रहता अब काग़ज़ पर है छींटाकंशी की आदत भी बड़ी ही निराली है दूसरों पर हो तो ठीक है , पर खुद पे हो तो ग़लत है नशे से भरे शहर हैं , धुएँ के उड़ते लबादे नौजवानो ने इस तरह उड़ा दी अपनी फिकर है आदमी तो क्या है ये तो घरों की सड़ती कहानी क्या करें जो व्यवस्था हो रही इतनी लचर है भ्रष्ट है ये आचरण हमे इतना ज्ञात है पर हमेशा से वही खोखला मजबूर डर है त्रासदी तो हो चुकी है देवभूमि के घरों मे चीखता है मौन रूदन , सूखते आँसू नज़र है वाह मेरे प्रशासन की महिमा , टुकड़े कुछ पकड़ा गये राजनीति है ज़रूरी , फिर वो चाहे लाशों पर हैं मसले ये नहीं कि भ्रष्ट व्यवस्था , महंगाई  की मार है बस धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता का मुद्दा ही प्रबल है हे मेरे मंत्री बहुगुणा , गुण बहुत है तुम पे माना ये तुम्हारी चालक लोमड सोच अब तो शीर्ष पर है थक गये हैं , पक गये हैं , नागरिक भी तुमसे(कॉंग्रेस) अब तो एक नया संग्राम तुमको हराने को तत्पर है राजेश बलूनी &

लकीरें

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कैसे हुए ये दिन कि गुज़रते नहीं लम्बी दूरी हो गई मगर फिर भी चलते नहीं ग़ज़ब है कि बहुत सारी हिदायतें है जीने में और लोग हैं कि बात को समझते नहीं दरकिनार किया कई सारी बेसमझ अटकलों को मगर यूँ ही लबों से भी लफ्ज़ तो फिसलते नहीं भीगी हुई मिटटी में कुछ गीली हुई है लकड़ियाँ इसीलिए तो इनके गट्ठर सुलगते नहीं अब कोई रिश्ता नहीं है अतीत के मुहाने से तभी हम उन यादों को पास रखते नहीं बिना सोचे समझे निकाला गुस्से का ग़ुबार क्यों हम बिफरने से पहले परखते नहीं आदतों का तो ईमान है कि सटकर रहेंगी हमसे नाता सच्चाई से फिर क्यों रखते नहीं बहुत शोर -शराबा किया जब अपने हक पर बात आई पर दूसरों के लिए कभी हम लड़ते नहीं बूंदों में भरकर भी सूखे हो चले हैं नैन सही मौकों पर कभी-कभी ये बरसते नहीं लेकिन ये कैसा है जो ज़िन्दगी से चिपका है मजबूरियों से कभी हम बचते नहीं ढेर लगा है बहुत सारे कीमती सामानों का घर में फिर भी ये दिलो-दिमाग खुश लगते नहीं किस्मत पर रोओगे और कहोगे यही लिखा था क्यों अपनी लकीरों को फिर बदलते नहीं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

आगाज़

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अभी गुज़रने से कोई मंजिल पास आएगी अपनी हकीकत की दास्ताँ सबको आज सुनाएगी चलने का सिलसिला लगातार बनाए रखा था तभी जल्द ही सारी मुश्किलें छंट जाएंगी बेहोश मन का एक सिरा कई ख्याल बुनता है और कुछ उल्टा-सीधा हुआ तो सांस पर बात आएगी कंठ से निकले सुर भी मिश्री घोल रहे हैं पाँव से निकली धुल भी कितनी राहें सजाएंगी आक्रोश तो होगा ही जब हर कदम पर ठोकर लगी मगर मुश्किलों के बाद ही तो मुस्कराहट आएगी पेंच बहुत हैं कि खबरदार नहीं होता हूँ जिस्म से मगर सच्ची जीत की खुशबू तो रूह से आएगी कौन बिगड़े हुए ज़माने से मुंहजोरी करता है अपनी किस्मत सही हुई तो इनको नानी याद आएगी कर्मप्रधान है जीवन इसमें कोई शक नहीं भाग्य भरोसे रहने वालों की तो लुटिया डूब जाएगी आगाज़ तो कर चुका हूँ कामयाबी के सफ़र की सच्चाई और हिम्मत मुझे मंजिल तक पहुंचाएगी राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

कशमकश

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  वक़्त की सुरंग से जाने कितने लम्हे निकले कुछ आगे चले गये कुछ रह गये पीछे सुकून भी बेहिसाब सदमों की गिरफ़्त मे है अश्कों ने अब चेहरों पर समंदर है खींचे दो पल के लिए कोई हाथ पर उम्मीदें बांधता है मगर मुश्क़िलों की भीड़ मे सब रह गये पीछे एक कोहरे से सर्द मौसम की आस लगी थी मगर उसने भी धुएँ से अपने लिबास हैं खरीदे दिन का चेहरा मायूस है रात की बेरूख़ी हवाओं से क्योंकि शबनम की आग से जल गये है बगीचे नज़्म है बेसुरी मगर फिर भी साज़ छेड़ता हूँ क्या पता टूटे सुर से कोई नायाब राग निकले आबो हवा भी अब गमगीन हो गयी है आख़िर पत्तियों ने जो बदले हैं बहने के तरीके बेमन से शिरकत की दोस्तों की महफ़िल मे ऊपर खाली आसमान है बंजर धरती है नीचे हालात से लड़ने की मेरी हमेशा क़वायद रही है इरादों ने जो आज़माए हैं संभलने के सलीके कशमकश है की क्या करूँ ज़िंदगी से खफा नहीं हो सकता बहुत से ऐसे पल हैं ज़िंदगी मे जो बेवजह हैं बीते राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

चीथड़े.......

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जलते चराग़ भी देखे कि बुझ गए चलते -चलते ना जाने कदम क्यों रुक गए कई राजा रंक बने और कई रंक राजा इस वक़्त की मेहरबानी से सब बदल गए रसूख वाली शख्सियत भी धूल हो गयी चमचमाते महल भी राख मे ढल गए पसीने की हर एक बूँद का हिसाब लगेगा और खून के सभी छींटो से जिस्म सिहर गए कलह की स्रोतवाहिनी दिमाग़ की उपज है मगर प्रेम भाव बस चेहरों तक सिमट गए काँपते हाथों से सहारा दिया ग़रीब को और अमीर के सामने झुक कर लिपट गए क्या हुआ कि मानसिकता भी निम्न स्तर की हो चली है मानवता के मानक भी कालाबाज़ारी मे गिर गए लाख कोशिश की ज़मीर को संभालने की मगर खनखनाते सिक्कों के आगे इसके उसूल भी बिक गए अब चीथड़ो मे गूँथी हुई है जीवन की कहानी पढ़ने से पहले ही ज़िंदगी के पन्ने फट गए  राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'