साँस का साथी
छूटी हुई शामें दरख्तों पर फैलती हैं गफ़लत में यादों का धुआं लिए एक सूरज का रहमो करम था उजाले कि रुत में हैं दिन ये गुज़ारे मगर चाँद है कि अँधेरे पिए बाग़ों का घर है पानी के दम पर छोटी ये घासें उखड ही न जाएं मिटटी जो गीली है अंधड़ लिए सूखे ख़ुशी के झरोखों में बंद था एक बार एक नया सा शहर वो पुराने किलों का मलबा लिए एक ओर जैसे शर्म-ओ-ज़हन है काश कि रहती घड़ियाँ यहीं तक मगर वक़्त के हैं यही तो गिले ज़द्दोज़हद है ये कैसी सयानी बरकत क्या होती गुनाहों की शह में मिज़ाज भी हैं सख्ती से बदले हुए रखता समंदर का बिखरा किनारा टूटे हुए पत्थरों की निशानी और सीने में अश्कों के मंज़र लिए अलसा गया है अम्बर कहीं पर बादल जो काले छाए रहे हैं अब तो तमन्ना में जीते रहे मौसम लगा है गर्दिश का जैसे धुआं भी कहानी सा उड़ता हुआ पन्ने सवालों से घिर ही गए सिरे पर बैठी हुई सी लगी है या हाशिये पर लेटे हुए जिंदगानी सांस के साथी भी छूट गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'