Friday, July 26, 2013

ज़र्रे


एक ज़र्रा ज़िन्दगी का  कहता है मुझे छोड़ दो
और ग़मों की रुत से कुछ हंसी निचोड़ लो

छूटते हुए गलियारे हमेशा याद रहेंगे
लम्हों से आज इतना बोल दो

इतनी ठोकरों से पैरों को यकीन हो गया
कि अपने नाखूनों से अब पत्थरों को तोड़ दो

यादों का मलबा सुर्ख दिमाग के घेरे में है
अब इसका दिल से भी नाता जोड़ दो

हाँ ! यहीं बैठा था किताबों को हाथ में लेकर
बैगैर हाथों को उठाये पन्नों को मोड़ दो

अब चालें नहीं बची है शतरंज के खेल में
चलो अब ये खेल खेलना भी छोड़ दो

पतंग टूट कर डोर से अलग हो गयी
अब धागे से भरी चखरी को भी तोड़ दो

नसें खौलती है तो क्या करूँ मैं भी
शरीर भी अब नहीं कहता कि बोझ ढो

जो चल रहा है चलने दो हमें पर कोई फर्क नहीं
कोई नहीं चाहता कि किसी और के बारे में सोच लो

कितने दर्द और कितने मरहम ढूंढता फिरूं मैं
खुदा से कहता हूँ मुझे ये बख्शीश रोज़ दो

बस बहुत हो गया अब चलता हूँ क्या करूँ
कहीं ऐसा न हो कि इसे पढ़कर तुम सर नोच लो

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'



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