Saturday, July 20, 2013

एक आधा अधूरा



गर्म है कि रिस्ता धुआँ घुल गया है चाँद मे
कुछ सूरज के टुकड़े गल गये हैं शाम मे

बेबाक ही की थी ज़िंदगी बसर मैने
अब कुछ डरा सहमा रहूँगा मकान मे

ज़रा ज़िल्द फट रही है कहकहों के पन्नों की
अब रहेंगे वो कहीं पुरानी मुस्कान मे

देनदारी कई हो चली हैं कि क़र्ज़ ज़ख़्मों का है
और ख़ुशफ़हमी रहे दर्द के निशान मे

खराशें है दर्द के कई अनकहे लफ़्ज़ों मे
मरहम भी मिलेगा अब ज़हर की दुकान मे

समेटा तो था गुफ्तगू को मन के झरोखे मे
मगर तल्खियाँ बरस चुकी मेरी ज़ुबान मे

एक छूटा सा रेशम का बना हुआ झोंका
शायद अपने दायरे से बदल गया तूफान मे

अश्क़ के सिकुड़ते जज़्बे ,चेहरों की घटी सी रंगत
यही अब बस चुके है आस पास जहान मे

शोर के बीच मे पनपता एक शहर का मिज़ाज
कहानी बनाता है बिखरती दास्तान मे

कुछ भरे से गमों के लतीफ़े हैं ज़हन मे
और कुछ सुलगते ज़ज़्बात भी रहे हैं इंसान मे

बेदखल मसला है कि ख्वाब की रहगुज़र नहीं
ढूँढ लूँगा उसे भी अपने आशियाँ मे

कवायद है मेरी की घुट के कहीं ना जियूँ
मगर अतीत की यादें भी तो हैं दुनियाँ मे

एक आधा अधूरा जज़्बात का समंदर है
और बूँदें भी सरकती है मेरे आसमान मे


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
   

  

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