
कुछ सूरज के टुकड़े गल गये हैं शाम मे
बेबाक ही की थी ज़िंदगी बसर मैने
अब कुछ डरा सहमा रहूँगा मकान मे
ज़रा ज़िल्द फट रही है कहकहों के पन्नों की
अब रहेंगे वो कहीं पुरानी मुस्कान मे
देनदारी कई हो चली हैं कि क़र्ज़ ज़ख़्मों का है
और ख़ुशफ़हमी रहे दर्द के निशान मे
खराशें है दर्द के कई अनकहे लफ़्ज़ों मे
मरहम भी मिलेगा अब ज़हर की दुकान मे
समेटा तो था गुफ्तगू को मन के झरोखे मे
मगर तल्खियाँ बरस चुकी मेरी ज़ुबान मे
एक छूटा सा रेशम का बना हुआ झोंका
शायद अपने दायरे से बदल गया तूफान मे
अश्क़ के सिकुड़ते जज़्बे ,चेहरों की घटी सी रंगत
यही अब बस चुके है आस पास जहान मे
शोर के बीच मे पनपता एक शहर का मिज़ाज
कहानी बनाता है बिखरती दास्तान मे
कुछ भरे से गमों के लतीफ़े हैं ज़हन मे
और कुछ सुलगते ज़ज़्बात भी रहे हैं इंसान मे
बेदखल मसला है कि ख्वाब की रहगुज़र नहीं
ढूँढ लूँगा उसे भी अपने आशियाँ मे
कवायद है मेरी की घुट के कहीं ना जियूँ
मगर अतीत की यादें भी तो हैं दुनियाँ मे
एक आधा अधूरा जज़्बात का समंदर है
और बूँदें भी सरकती है मेरे आसमान मे
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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