कशमकश
वक़्त की सुरंग से जाने कितने लम्हे निकले
कुछ आगे चले गये कुछ रह गये पीछे
सुकून भी बेहिसाब सदमों की गिरफ़्त मे है
अश्कों ने अब चेहरों पर समंदर है खींचे
दो पल के लिए कोई हाथ पर उम्मीदें बांधता है
मगर मुश्क़िलों की भीड़ मे सब रह गये पीछे
एक कोहरे से सर्द मौसम की आस लगी थी
मगर उसने भी धुएँ से अपने लिबास हैं खरीदे
दिन का चेहरा मायूस है रात की बेरूख़ी हवाओं से
क्योंकि शबनम की आग से जल गये है बगीचे
नज़्म है बेसुरी मगर फिर भी साज़ छेड़ता हूँ
क्या पता टूटे सुर से कोई नायाब राग निकले
आबो हवा भी अब गमगीन हो गयी है
आख़िर पत्तियों ने जो बदले हैं बहने के तरीके
बेमन से शिरकत की दोस्तों की महफ़िल मे
ऊपर खाली आसमान है बंजर धरती है नीचे
हालात से लड़ने की मेरी हमेशा क़वायद रही है
इरादों ने जो आज़माए हैं संभलने के सलीके
कशमकश है की क्या करूँ ज़िंदगी से खफा नहीं हो सकता
बहुत से ऐसे पल हैं ज़िंदगी मे जो बेवजह हैं बीते
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
Comments
Post a Comment