Thursday, July 4, 2013

कशमकश


 
वक़्त की सुरंग से जाने कितने लम्हे निकले
कुछ आगे चले गये कुछ रह गये पीछे

सुकून भी बेहिसाब सदमों की गिरफ़्त मे है
अश्कों ने अब चेहरों पर समंदर है खींचे

दो पल के लिए कोई हाथ पर उम्मीदें बांधता है
मगर मुश्क़िलों की भीड़ मे सब रह गये पीछे

एक कोहरे से सर्द मौसम की आस लगी थी
मगर उसने भी धुएँ से अपने लिबास हैं खरीदे

दिन का चेहरा मायूस है रात की बेरूख़ी हवाओं से
क्योंकि शबनम की आग से जल गये है बगीचे

नज़्म है बेसुरी मगर फिर भी साज़ छेड़ता हूँ
क्या पता टूटे सुर से कोई नायाब राग निकले

आबो हवा भी अब गमगीन हो गयी है
आख़िर पत्तियों ने जो बदले हैं बहने के तरीके

बेमन से शिरकत की दोस्तों की महफ़िल मे
ऊपर खाली आसमान है बंजर धरती है नीचे

हालात से लड़ने की मेरी हमेशा क़वायद रही है
इरादों ने जो आज़माए हैं संभलने के सलीके

कशमकश है की क्या करूँ ज़िंदगी से खफा नहीं हो सकता
बहुत से ऐसे पल हैं ज़िंदगी मे जो बेवजह हैं बीते


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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