Saturday, July 6, 2013

लकीरें



कैसे हुए ये दिन कि गुज़रते नहीं
लम्बी दूरी हो गई मगर फिर भी चलते नहीं

ग़ज़ब है कि बहुत सारी हिदायतें है जीने में
और लोग हैं कि बात को समझते नहीं

दरकिनार किया कई सारी बेसमझ अटकलों को
मगर यूँ ही लबों से भी लफ्ज़ तो फिसलते नहीं

भीगी हुई मिटटी में कुछ गीली हुई है लकड़ियाँ
इसीलिए तो इनके गट्ठर सुलगते नहीं

अब कोई रिश्ता नहीं है अतीत के मुहाने से
तभी हम उन यादों को पास रखते नहीं

बिना सोचे समझे निकाला गुस्से का ग़ुबार
क्यों हम बिफरने से पहले परखते नहीं

आदतों का तो ईमान है कि सटकर रहेंगी हमसे
नाता सच्चाई से फिर क्यों रखते नहीं

बहुत शोर -शराबा किया जब अपने हक पर बात आई
पर दूसरों के लिए कभी हम लड़ते नहीं

बूंदों में भरकर भी सूखे हो चले हैं नैन
सही मौकों पर कभी-कभी ये बरसते नहीं

लेकिन ये कैसा है जो ज़िन्दगी से चिपका है
मजबूरियों से कभी हम बचते नहीं

ढेर लगा है बहुत सारे कीमती सामानों का घर में
फिर भी ये दिलो-दिमाग खुश लगते नहीं

किस्मत पर रोओगे और कहोगे यही लिखा था
क्यों अपनी लकीरों को फिर बदलते नहीं


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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