Friday, July 26, 2013

साँस का साथी


छूटी हुई शामें दरख्तों पर फैलती हैं
गफ़लत में यादों का धुआं लिए

एक सूरज का रहमो करम था
उजाले कि रुत में हैं दिन ये गुज़ारे
मगर चाँद है कि अँधेरे पिए

बाग़ों का घर है पानी के दम पर
छोटी ये घासें उखड ही न जाएं
मिटटी जो गीली है अंधड़ लिए

सूखे ख़ुशी के झरोखों में बंद था
एक बार एक नया सा शहर वो
पुराने किलों का मलबा लिए

एक ओर जैसे शर्म-ओ-ज़हन है
काश कि रहती घड़ियाँ यहीं तक
मगर वक़्त के हैं यही तो गिले

ज़द्दोज़हद है ये कैसी सयानी
बरकत क्या होती गुनाहों की शह में
मिज़ाज भी हैं सख्ती से बदले हुए

रखता समंदर का बिखरा किनारा
टूटे हुए पत्थरों की निशानी
और सीने में अश्कों के मंज़र लिए

अलसा गया है अम्बर कहीं पर
बादल जो काले छाए रहे हैं
अब तो तमन्ना में जीते रहे

मौसम लगा है गर्दिश का जैसे
धुआं भी कहानी सा उड़ता हुआ
पन्ने सवालों से घिर ही गए

सिरे पर बैठी हुई सी लगी है
या हाशिये पर लेटे हुए जिंदगानी
सांस के साथी भी छूट गए


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'



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