Thursday, December 27, 2018

अच्छा नहीं लगता....
















गुलाब सूख कर डाली से गिरे तो अच्छा नहीं लगता
हाथ अगर साथी से छूटे तो अच्छा नहीं लगता

मनमर्ज़ियाँ होती रही ताउम्र जब तक होश रहा
अब सोच पर बंदिशें लगना अच्छा नहीं लगता

जहाँ भर की थकान से घर बड़ा सुकून देता है
बस दीवारों का चटकना अच्छा नहीं लगता

मेरे सामने हज़ारों मंज़र तबाह हो चुके हैं
उस पर बेशर्म बारिश का बरसना अच्छा नहीं लगता

कितने लोग आये झूटी तस्सली देने यहाँ
बिखरे दिल को दोबारा कुरेदना अच्छा नहीं लगता

ऐसा नहीं कि जीना मुमकिन नहीं है तेरे जाने के बाद
मगर फिर भी इस तरह ज़िन्दगी जीना अच्छा नहीं लगता

हवाई तरंगों से संगीत का कुछ एहसास हुआ
मगर उस से निकले शोकगीत सुनना अच्छा नहीं लगता

सड़क पर बेसुध पड़ी लाश खून से सनी है
मदद के बजाय सुर्खिया बटोरना अच्छा नहीं लगता

ख़बरें भी आजकल कारोबारी लबादा ओढ़े रहती हैं
यूँ हर बात को तोडना मरोड़ना अच्छा नहीं लगता

ये भी बुज़दिली है कि उँगलियाँ दूसरों पर उठाओ
और खुद के सामने रखा आइना अच्छा नहीं लगता

सह लेंगे काँटों को  कुछ देर, खूबसूरती के खातिर
पर गुलाब सूख कर डाली से गिरना अच्छा नहीं लगता

-  राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

Friday, August 17, 2018

अटल तो अटल हैं


अटल जी को समर्पित मेरी कविता


अंशुमान अब लुप्त हुआ आज निशा के अंत में
श्वास शून्य हो गयी है आज जीवन तंत्र में
उस युगद्रष्टा के काल खंड में सत्य का वर्चस्व था
आज स्वर्णिम गीतांजलि है उनके स्मृति-वन में

मृत्यु तुम तो अटल हो, तुम्हे बड़ा गुमान है
किन्तु वो भी अटल थे, क्या तुम्हे अनुमान है
उनकी ओजस वाणियों का अजब ही एक ताप था
जिनके प्रस्फुटन से जगता आज हिंदुस्तान है

आज हृदय की श्वास नलियां करुण क्रंदन कर रही
अश्रुधारा बह चली है धरती वंदन कर रही
युग-पुरोधा, दिव्य वाचक, सर्वसम्मत राजनेता
वाक्पटुता, काव्य-शैली, मधुर व्यंगों का चहेता
आज जीवन-युद्ध के संग्राम में अविचल हुआ
दीप बुझकर भी यहाँ पर आज वो उज्जवल हुआ

काल के गर्भ में वो पथ निरंतर कर गए
देह को मृत्यु-समर्पण, दीर्घ अंतर रच गए
आज दर्पण में उनींदी नयनों को क्या देखना
इस सिहरती रात में चन्द्रमा क्या देखना

देखी अंतिम यात्रा की भावभीनी है विदाई
पंक्तियों में, रास्तों में आज भारी है रुलाई
संसृति  के मोह में तो बड़े बड़े डोल गए
आपके व्यक्तित्व को वो अंश भर भी छू पाई

धन्य है वो माता जिनकी गुदड़ी का वो लाल था
निष्कपट जीवन जिया और तेज रक्तिम भाल था
करूणा ले रही हिलोरें, सागर में आज उफान है
शक्तिपुंज के प्रणेता को कोटि कोटि प्रणाम है

जब प्रभाकर-लालिमा भी क्षीण होने लग रही
जब निशाचर रश्मियां विदीर्ण होने लग रही
सूर्य का अमिताभ लेकर सजल लोचन रो रहे 
चित्त के इस शांतिवन में चिरनिद्रा में सो रहे 
उस महामानव का देखो दिशाएं स्वागत करे 
जिसकी ओजस वाणियों से जल रहे अनगिन दिए 

रचनाओं के अद्भुत शिल्पी, नीतिशास्त्र के ज्ञाता हो
वीरों सी प्रखर वाणी और कोमल हृदय के दाता हो
अंतिम पथ पर जाते देखा, मन अब भी ये विस्मित है
चरणों में करुणामय हृदय से श्रद्धासुमन अर्पित है


-राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'






Friday, June 15, 2018

बेचराग होती हैं गलियां.......




बेचराग होती हैं गलियां, सभी दिल टूट गए 
कश्मकश का दौर है, सारे साथी छूट गए

रुके फैसलों से ज़िन्दगी नहीं चला करती है 
और भी ना जाने कितने मंज़र रुक गए

मिला था कुछ अधूरा सा अपनापन कभी
विदा होकर साथियों से, सारे जज़्बात छूट गए

ठिकाना बमुश्किल से घास फूस का ही बनाया था 
वो बड़ी बेदर्दी से मेरा घर फूंक गए

पाया कि अक्ल में समझदारी का अकाल है 
और दिमाग की नसों के शैवाल सूख गए

ये अश्क भी समंदर का अक्स होते हैं 
ज़िन्दगी के इस मुहाने पर इन्ही में डूब गए

ग़लतफ़हमी थी कि होशियारी आ गयी है हमको 
अनाड़ी ही थे जो हर मामले में चूक गए

सांस के चलने से ज़िन्दगी का एहसास हुआ 
गनीमत है कि मरने की खैर खबर पूछ गए

आसां नहीं हैं इस तरह हर पल को समेटना 
लम्हे भी देखो अब वक से रूठ गए

वो मेरे आशियाने में आने से कतराते हैं 
और दुश्मनो की महफ़िल में बहुत खूब गए

अब हालात पर अपने उबकाई से आती है
सचमुच इस ज़िन्दगी से हम इतना ऊब गए


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

उस बुझते दिए की.......


उस बुझते दिए की साख क्या होगी
रात से अँधेरा जो उधार लाया

सलीका तो मैंने भी सीखा नहीं
बेहयाई की फितरत को साथ लाया

एक पहर धूप क्या ज़्यादा हुई
सूरज को खुद पर गुमान आया

चेहरा भी मेरा बदरंग सा हो गया
मैं जल्दी से शीशे में उतार लाया

लफ़्फ़ाज़ी की आदत भी कहीं छूटती है भला
हक़ीक़त का उसने यूँ मज़ाक उड़ाया

मिज़ाज कुछ बेतरतीब से हो चले हैं
भौंहों में गुस्से का ग़ुबार आया

उसके वजूद की शिनाख्त नहीं हुई
इसीलिए मरने का ख्याल आया

रुआँसा होकर निकला मैं वहां से
जहाँ बस नाउम्मीदी और इंतज़ार पाया

अब मेरे जिस्म में रूह का सन्नाटा  है
लगता है बहुत दिनों बाद बुखार आया

- राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Tuesday, June 5, 2018

यूँ ज़िन्दगी से......

यूँ ज़िन्दगी से मुलाकात का बहाना था

बस आखिरी लम्हों में वक़्त को बुलाना था


मुसलसल था सफर और शिकायतें भी कई थी

याद भी करें तो क्यों, आखिर उन्हें भुलाना था


उस चेहरे से झिझक की त्योरियां उतर गयी

हमें तो बस आँखों का सूरमा दिखाना था


सांस भी भूली हुई सी कहानी का हिस्सा है

ज़िन्दगी के टुकड़ों को समेट कर लाना था


कुछ वजूहात रहे होंगे, तभी तो वो चुप रहे

कोई राज था जो उनको छुपाना था


अब खानाबदोशी का आलम ये हो गया है

कि सर पर बस आसमां का शामियाना था


वो तालीम भी किसी के काम नहीं आयी

जिसकी रवायत में इंसानियत का फ़साना था


ये नफरतों का तर्जुमा है कि लोग अब पूछते नहीं

उनका मकसद तो हमें नज़रों से गिराना था

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'



तेरी आवाज़

तेरी आवाज़ से तन्हाई में जो खलल होता है

वही आजकल मेरे जीने का सबब होता है


तीखी नज़रों से सामना होता है मेरा रोज़

इस तरह दिन गुज़रना बड़ा अजब होता है


ये लगाव है या अच्छे वक़्त का इशारा

पहली पसंद का एहसास कुछ अलग होता है


एक मुस्कराहट से पूरे दिन का खुशनुमा होना

ये करिश्मा भी बड़ा ग़ज़ब होता है


खुशबू में घुल गया है ज़िन्दगी का मौसम

हज़ारों फूलों से बेहतरीन कँवल होता है


परेशां है ज़हन कि इधर-उधर भटकता है

सुकून भी न जाने क्यों बेअसर होता है


हंसी भी रोज़ न जाने कितने आंसुओं को भुलाती है

ख्वाबों में आजकल नया महल होता है


- राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

Sunday, January 21, 2018

घुटन......


खुलती हवाएं घुटन से भरी हैं
ये बागों की कलियाँ चुभन से भरी हैं

शज़र की शाखों में पत्ते नहीं हैं
ये राहें तो उजड़े चमन से भरी हैं

ज़मीं तो हकीकत से कोसों परे है
सितारों की किस्मत गगन से भरी है

चले जा रहें हैं कि मंज़िल नहीं है
दिशाएं भी देखो जलन से  भरी हैं

न साथी, न यादें, न जीवन का किस्सा
मातम की बातें ज़हन में भरी हैं

साँसें तो जैसे पिंजड़े में बंद है
फ़िज़ाएं धुएं की किरण से भरी है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...