Thursday, November 28, 2019

तसल्ली


मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी
मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी

लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे
जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी

वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं
हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी

किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले
अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी

तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा
मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी

हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार 
इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी

रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल
तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी

बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी
इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी

सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी
कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी

- राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Friday, October 25, 2019

सोचा हुआ हो जाए, ये हमेशा नहीं होता....



सोचा हुआ हो जाए, ये हमेशा नहीं होता
हर किसी का मन यहाँ एक सा नहीं होता

बहुत ख्वाब थे कि ज़िन्दगी बड़ी आसान सी होगी
मुश्किल से न गुज़रे, कोई दिन ऐसा नहीं होता

संभलकर बोलना और संभलकर चलना पड़ता है
जैसा हम सोचते हैं ज़िन्दगी का सफर वैसा नहीं होता

लाख समझाया कि मेरी इरादों में हमेशा नेकी रहती है
इतना कहने पर भी उसको भरोसा नहीं होता

अभी शुरू में ही तकलीफों की झलकियां दिख गई
मुझे कुछ दिन आराम मिले, वैसा नहीं होता

मैं तो अपनी अकलियत को फिर भी सुधार लूँ
पर उसके रवैये में बदलने का जज़्बा नहीं होता

अपने ही करम थे जो आजकल डरे सहमे रहते हैं
दूसरों की गलतियों का यहाँ मसला नहीं होता

- राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'




Friday, July 12, 2019

ढले सच के सांचों में तो....



ढले सच के सांचों में तो उभर गए
वक़्त रहते हम खुद सुधर गए

रही सांस बाकी अब सुकून होगा
तकलीफ के दिन अब गुज़र गए

उम्मीद थी कि वो बड़ा ज़हीन है
बेवकूफी की और दिल से उतर गए

ये गनीमत है कि हालात ठीक हुए
और ज़िन्दगी के मसले सुलझ गए 

उसकी दोस्ती का पैमाना मोहब्बत है
और देखते ही देखते हम संवर गए

मैं सड़क पर कंकरों को उठाता हूँ
ये सोचकर कि  यहाँ रास्ते निकल गए

हंसी का भी अपना एक स्वाद होता है
शहद के मर्तबान जैसा निखर गए 

चोट तो ज़िन्दगी का हिस्सा रहेगी
दर्द के किस्से अब उखड गए

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'  

Tuesday, June 25, 2019

कब रहता है होश कि.....
















कब रहता  है होश कि ज़िंदगी यूँ ही निकल गई
देखते ही देखते वक़्त की सुइंयाँ फिसल गई

मैं चला हूँ बदस्तूर कि अभी शाम का बसेरा है
थोड़ी दूर चलने पर रात भी ढल गई

अंजान हूँ कि क्या होगा मेरा मुस्तकबिल ऐ दोस्त
ये तो बस कल की बात थी और ज़िंदगी निकल गई

ये भरम था कि मेरी रहगुज़र उसके ठिकाने पर है
मगर उसकी फ़ितरत भी ज़माने के साथ बदल गई

कौन है मोहसिन मेरा अब जानकर क्या करूँ
जब तन्हाई मे मेरी पूरी ज़िंदगी सिमट गई

तआरुफ़ क्या है मेरी हिम्मत का, ये अगर नहीं पता
देखो आँधियों से भी मेरी  ज़िन्दगी सम्भल गई

अब बात बनाने से फायदा नज़र नहीं आता
दुनिया की नज़र अब कारोबार समझ गई

हसरतों का ढेर तो दिल के अंदर कबसे जमा है
बीते दिनों की याद में उनकी चिता भी जल गई

मैं सोचता हूँ कि क्यों आजकल हर रिश्ते खफा है
क्या सबके वजूद की इमारत बिखर गई

बड़े शौक से ईमानदारी के लतीफे सुनते थे
अब उनकी तबीयत भी सब्ज़बाग से बिगड़ गई

तुम्हे क्यों रश्क हुआ जो मैं खुद से खुश हूँ
मुझे देखकर तुम्हारी त्योरियां क्यों चढ़ गई

बदला हुआ ज़माना तो अब हाथ मिलाने का है यारों
दिल मिलाने की तारीखें तो निकल गई

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

Monday, February 25, 2019

बेस्वाद...


गिरे गलियों मे खून के छींटे
और कटें है दरखतों में बगीचे

आवाज़ें नहीं ये दर्द के फव्वारे हैं
या बन गयी हैं मुकम्मल चीख़ें

मेरा तो मकान तेरे घर के सामने था
पर दिलों की गर्द  है कि सरहदें खीचें

बीते वक़्त का लौटना आख़िर क्यों नहीं होता
रोज़ यही सोचकर माथे को पीटें

कल बड़ी शिद्दत से हमसे हाथ मिलाया
आज थोड़ी सी तरक़्क़ी से बदल गये तरीके

मेरे सामने चेहरे पर मुस्कुराहट रहती है
पीछे से तब्बस्सुम को गुस्से से भींचे

खवाब बड़ा देखा आसमान बनाने का
पंख कतरने पर आ गये हैं नीचे

जितनी तेज़ चला मैं गुनाहों की राह मे
उतना ही ज़िंदगी रह गई पीछे

क्यों बेस्वाद सा ये ज़िंदगी का सफ़र है
क्यों हर लम्हे लग रहे हैं फीके

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


Wednesday, February 20, 2019

गुच्छे


अभी तो सिर्फ़ ज़िक्र हुआ है
निगेहबानी तो बाद मे होगी

एक बूँद साँस अभी जन्मी है
ज़िंदगानी तो बाद मे होगी

ख़ुशामद करने मे ज़िंदगी बीत  गयी
मेहरबानी तो बाद मे होगी

इस ज़माने को भूलने की आदत है  मगर
निशानी तो याद मे होगी

घिरते रहे दर्द मे खामोश होकर
मुंहज़ुबानी तो बाद मे होगी

अल्फाज़ों के गुच्छे समेट रहा हूँ
कहानी तो बाद मे होगी

-राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'  

Monday, February 18, 2019

पुलवामा में शहीद हुए वीर सैनिकों को समर्पित....





















भाग -1

आज बदहवास सी फ़िज़ाएं हो रही है
मेरे शहर मे कितनी माएँ रो रही है

बड़े जोश से वतन का झंडा लिए जा रहे थे
आज उनकी शहादत पर दुनिया रो रही है

वो बुज़दिलों के हाथों से मारे गये इस कदर
कि सड़क भी अपने को खून से धो रही है

इन जवानों की लाशों मे वतनपरस्ती की खुशबू है
जो गद्दारों के सीने को चुभो रही है

आज इस कदर आँखे छलछला गयी
कि ग़म की नदी मे सबको डुबो रही है

मेरी नसों मे गुस्से का उबाल है
वो दहशत के दरिंदों को खोज रही है

अब नफ़रतों के सौदागरों के लिए
मेरी वतन की फ़ौजें तैयार हो रही हैं

तेरे धोखे का ए पाकिस्तान माकूल जवाब मिलेगा
अभी तो यहाँ पर हवायें लाशें ढो रही हैं

हर हिंदुस्तानी सरहद पर जाने को आमादा है
हर आँख तेरे खात्मे की बाट जोह रही हैं

भाग -2

ओ बुज़दिल और मक्कार पाकिस्तान------------------------- 

ये मत समझना कि हम चुप बैठ जाएँगे 
तेरे सीने पर इतने खंज़र चलाएँगे 

कि तू भी अपनी किस्मत को कोसेगा 
अपने ही हाथों से अपनी कब्र खोदेगा 

ये जवान हमारे हिंद की शान है 
इनके खून का हर एक कतरा देश का सम्मान है 

तेरे जेहादी इरादों को बर्बाद करेंगे 
तुझे मुफ़लिसी मे धकेल कर वार करेंगे 

तेरी हैसियत तो एक झूठे शैतान की तरह है 
तेरा नामो-निशान मिटेगा, तू ही इसकी वजह है 

तेरी मक्कारी के खेल की अब चिता जलेगी 
पूरी दुनिया मे तुझे छुपने की जगह नहीं मिलेगी 

याद रखना कि हमारा खून अभी सूखा नहीं
दिल दुखी है ,उदास है, मगर हौसला टूटा नहीं 

मत सोचना कि हम कदम पीछे हटाएंगे 
तेरे हर एक आतंकियों का सिर धड़ से गिराएँगे 

अभी तो अपने जवानों ने दी अपनी बलि है 
इन महान शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि है 

तू ना अब सो पाएगा,कि हराम तेरी नींद करेंगे 
अब कराची से लाहौर तक हम जय हिंद जय हिंद करेंगे 

- राजेश बलूनी ‘प्रतिबिंब’

Wednesday, February 6, 2019

खुशफहमी...

















तेरी यादों के भंवर में कुछ ऐसे उलझे
कि ज़िन्दगी के कई मसले सुलझ नहीं पाए

बेहतरी के लिए ही कुछ सलाहें दी थी
पर  दिमाग के फितूर उसे समझ नहीं पाए

कुछ बनने का सपना तो बहुत देखा तूने
कुछ करने के वास्ते हड्डियाँ खरच नहीं पाए

तय किया था कि मुकाम पाने तक रफ़्तार नहीं थमेगी
मेरी नालायकी से हम मंज़िल तक पहुंच नहीं पाए

कितने लोग समझदारी का तमगा लिए फिरते हैं
मगर बेवकूफों की भीड़ से निकल नहीं पाए

ऊपर ऊपर से तो सबकी ख़ुशी का नज़ारा देखता हूँ
मगर दिल तक किसी के उतर नहीं पाए

पहले परवाज़ की तैयारी तो चिड़िया ने कर ही दी थी
बस नए परिंदे ज़हन में हौसला भर नहीं पाए

मैं भी क्या करूँ कि आदत हो चुकी है सुस्त रहने की
इसीलिए तो ज़िन्दगी में कुछ कर नहीं पाए

राजेश बलूनी  'प्रतिबिम्ब'

Saturday, January 12, 2019

याद भी तेरे....


याद भी तेरे सिरहाने से क़ुछ यूं चली जाती है
के नींद के झरोखों मे एक ज़िंदगी सिमट जाती है 

मेरे साथ आने से हवाओं को ऐसा रश्क हुआ
के मौसम के मिज़ाज मे कुछ तब्दीली आ जाती है 

बड़ी बेसब्र है पलटते हुए पन्नों की कहानी
मेरे लम्हों से वो मेरी दास्तान सुनाती है 

ज़मीर कहाँ खो गया की ढूंढने मे मशक्कत है
धूप के शहर मे छाँव कहाँ सो जाती है 

खर्च हो रहें हैं वजूद भी सरपरस्ती मे तुम्हारी
मेरे राम की जगह केवल तिरपाल मे समाती है  

ग़नीमत है कि अभी तक मरम्मत का दौर नहीं आया
मेरी कथा अब कत्लखानो मे सुनाई जाती है 

कई मसलों पर लोगों के खयालात ज़ब्त हो चुके हैं
उनकी खामोशी उम्मीदों की लाश को जलाती है 

गुज़रते वक़्त के साथ तुम भी मसरूफ हो जाओगे घर मे
और पायदान पर आने जाने के निशां अभी बाकी है

एक टुकड़ा रात का चख रखा था मैने कभी
पर सुबह ना जाने क्यूं बेस्वाद नज़र आती है 

खबरदार हुआ अपने अतीत के फैसलों से कभी तो
कल की सोच से मेरे मेरी लकीरे सम्भल ज़ाती है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...