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Showing posts from 2019

तसल्ली

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मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार  इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

सोचा हुआ हो जाए, ये हमेशा नहीं होता....

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सोचा हुआ हो जाए, ये हमेशा नहीं होता हर किसी का मन यहाँ एक सा नहीं होता बहुत ख्वाब थे कि ज़िन्दगी बड़ी आसान सी होगी मुश्किल से न गुज़रे, कोई दिन ऐसा नहीं होता संभलकर बोलना और संभलकर चलना पड़ता है जैसा हम सोचते हैं ज़िन्दगी का सफर वैसा नहीं होता लाख समझाया कि मेरी इरादों में हमेशा नेकी रहती है इतना कहने पर भी उसको भरोसा नहीं होता अभी शुरू में ही तकलीफों की झलकियां दिख गई मुझे कुछ दिन आराम मिले, वैसा नहीं होता मैं तो अपनी अकलियत को फिर भी सुधार लूँ पर उसके रवैये में बदलने का जज़्बा नहीं होता अपने ही करम थे जो आजकल डरे सहमे रहते हैं दूसरों की गलतियों का यहाँ मसला नहीं होता - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ढले सच के सांचों में तो....

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ढले सच के सांचों में तो उभर गए वक़्त रहते हम खुद सुधर गए रही सांस बाकी अब सुकून होगा तकलीफ के दिन अब गुज़र गए उम्मीद थी कि वो बड़ा ज़हीन है बेवकूफी की और दिल से उतर गए ये गनीमत है कि हालात ठीक हुए और ज़िन्दगी के मसले सुलझ गए  उसकी दोस्ती का पैमाना मोहब्बत है और देखते ही देखते हम संवर गए मैं सड़क पर कंकरों को उठाता हूँ ये सोचकर कि  यहाँ रास्ते निकल गए हंसी का भी अपना एक स्वाद होता है शहद के मर्तबान जैसा निखर गए  चोट तो ज़िन्दगी का हिस्सा रहेगी दर्द के किस्से अब उखड गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'  

कब रहता है होश कि.....

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कब रहता  है होश कि ज़िंदगी यूँ ही निकल गई देखते ही देखते वक़्त की सुइंयाँ फिसल गई मैं चला हूँ बदस्तूर कि अभी शाम का बसेरा है थोड़ी दूर चलने पर रात भी ढल गई अंजान हूँ कि क्या होगा मेरा मुस्तकबिल ऐ दोस्त ये तो बस कल की बात थी और ज़िंदगी निकल गई ये भरम था कि मेरी रहगुज़र उसके ठिकाने पर है मगर उसकी फ़ितरत भी ज़माने के साथ बदल गई कौन है मोहसिन मेरा अब जानकर क्या करूँ जब तन्हाई मे मेरी पूरी ज़िंदगी सिमट गई तआरुफ़ क्या है मेरी हिम्मत का, ये अगर नहीं पता देखो आँधियों से भी मेरी  ज़िन्दगी सम्भल गई अब बात बनाने से फायदा नज़र नहीं आता दुनिया की नज़र अब कारोबार समझ गई हसरतों का ढेर तो दिल के अंदर कबसे जमा है बीते दिनों की याद में उनकी चिता भी जल गई मैं सोचता हूँ कि क्यों आजकल हर रिश्ते खफा है क्या सबके वजूद की इमारत बिखर गई बड़े शौक से ईमानदारी के लतीफे सुनते थे अब उनकी तबीयत भी सब्ज़बाग से बिगड़ गई तुम्हे क्यों रश्क हुआ जो मैं खुद से खुश हूँ मुझे देखकर तुम्हारी त्योरियां क्यों चढ़ गई बदला हुआ ज़माना तो अब हाथ मिलाने का है यारों दिल मिलाने की तारीखें तो

बेस्वाद...

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गिरे गलियों मे खून के छींटे और कटें है दरखतों में बगीचे आवाज़ें नहीं ये दर्द के फव्वारे हैं या बन गयी हैं मुकम्मल चीख़ें मेरा तो मकान तेरे घर के सामने था पर दिलों की गर्द  है कि सरहदें खीचें बीते वक़्त का लौटना आख़िर क्यों नहीं होता रोज़ यही सोचकर माथे को पीटें कल बड़ी शिद्दत से हमसे हाथ मिलाया आज थोड़ी सी तरक़्क़ी से बदल गये तरीके मेरे सामने चेहरे पर मुस्कुराहट रहती है पीछे से तब्बस्सुम को गुस्से से भींचे खवाब बड़ा देखा आसमान बनाने का पंख कतरने पर आ गये हैं नीचे जितनी तेज़ चला मैं गुनाहों की राह मे उतना ही ज़िंदगी रह गई पीछे क्यों बेस्वाद सा ये ज़िंदगी का सफ़र है क्यों हर लम्हे लग रहे हैं फीके राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

गुच्छे

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अभी तो सिर्फ़ ज़िक्र हुआ है निगेहबानी तो बाद मे होगी एक बूँद साँस अभी जन्मी है ज़िंदगानी तो बाद मे होगी ख़ुशामद करने मे ज़िंदगी बीत  गयी मेहरबानी तो बाद मे होगी इस ज़माने को भूलने की आदत है  मगर निशानी तो याद मे होगी घिरते रहे दर्द मे खामोश होकर मुंहज़ुबानी तो बाद मे होगी अल्फाज़ों के गुच्छे समेट रहा हूँ कहानी तो बाद मे होगी -राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'  

पुलवामा में शहीद हुए वीर सैनिकों को समर्पित....

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भाग -1 आज बदहवास सी फ़िज़ाएं हो रही है मेरे शहर मे कितनी माएँ रो रही है बड़े जोश से वतन का झंडा लिए जा रहे थे आज उनकी शहादत पर दुनिया रो रही है वो बुज़दिलों के हाथों से मारे गये इस कदर कि सड़क भी अपने को खून से धो रही है इन  जवानों की लाशों मे वतनपरस्ती की खुशबू है जो गद्दारों के सीने को चुभो रही है आज इस कदर आँखे छलछला गयी कि ग़म की नदी मे सबको डुबो रही है मेरी नसों मे गुस्से का उबाल है वो दहशत के दरिंदों को खोज रही है अब नफ़रतों के सौदागरों के लिए मेरी वतन की फ़ौजें तैयार हो रही हैं तेरे धोखे का ए पाकिस्तान माकूल जवाब मिलेगा अभी तो यहाँ पर हवायें लाशें ढो रही हैं हर हिंदुस्तानी सरहद पर जाने को आमादा है हर आँख तेरे खात्मे की बाट जोह रही हैं भाग -2 ओ बुज़दिल और मक्कार पाकिस्तान-------------------------  ये मत समझना  कि  हम चुप बैठ जाएँगे  तेरे सीने पर इतने खंज़र चलाएँगे  कि तू भी अपनी किस्मत को  को सेगा  अपने ही हाथों से अपनी कब्र खोदेगा  ये जवान हमारे हिंद की शान है  इनके खून  का  हर  एक  कतरा देश का सम्

खुशफहमी...

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तेरी यादों के भंवर में कुछ ऐसे उलझे कि ज़िन्दगी के कई मसले सुलझ नहीं पाए बेहतरी के लिए ही कुछ सलाहें दी थी पर  दिमाग के फितूर उसे समझ नहीं पाए कुछ बनने का सपना तो बहुत देखा तूने कुछ करने के वास्ते हड्डियाँ खरच नहीं पाए तय किया था कि मुकाम पाने तक रफ़्तार नहीं थमेगी मेरी नालायकी से हम मंज़िल तक पहुंच नहीं पाए कितने लोग समझदारी का तमगा लिए फिरते हैं मगर बेवकूफों की भीड़ से निकल नहीं पाए ऊपर ऊपर से तो सबकी ख़ुशी का नज़ारा देखता हूँ मगर दिल तक किसी के उतर नहीं पाए पहले परवाज़ की तैयारी तो चिड़िया ने कर ही दी थी बस नए परिंदे ज़हन में हौसला भर नहीं पाए मैं भी क्या करूँ कि आदत हो चुकी है सुस्त रहने की इसीलिए तो ज़िन्दगी में कुछ कर नहीं पाए राजेश बलूनी  'प्रतिबिम्ब'

याद भी तेरे....

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याद भी तेरे सिरहाने से क़ुछ यूं चली जाती है के नींद के झरोखों मे एक ज़िंदगी सिमट जाती है  मेरे साथ आने से हवाओं को ऐसा रश्क हुआ के मौसम के मिज़ाज मे कुछ तब्दीली आ जाती है  बड़ी बेसब्र है पलटते हुए पन्नों की कहानी मेरे लम्हों से वो मेरी दास्तान सुनाती है  ज़मीर कहाँ खो गया की ढूंढने मे मशक्कत है धूप के शहर मे छाँव कहाँ सो जाती है  खर्च हो रहें हैं वजूद भी सरपरस्ती मे तुम्हारी मेरे राम की जगह केवल तिरपाल मे समाती है   ग़नीमत है कि अभी तक मरम्मत का दौर नहीं आया मेरी कथा अब कत्लखानो मे सुनाई जाती है  कई मसलों पर लोगों के खयालात ज़ब्त हो चुके हैं उनकी खामोशी उम्मीदों की लाश को जलाती है  गुज़रते वक़्त के साथ तुम भी मसरूफ हो जाओगे घर मे और पायदान पर आने जाने के निशां अभी बाकी है एक टुकड़ा रात का चख रखा था मैने कभी पर सुबह ना जाने क्यूं बेस्वाद नज़र आती है  खबरदार हुआ अपने अतीत के फैसलों से कभी तो कल की सोच से मेरे मेरी लकीरे सम्भल ज़ाती है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'