अलविदा
वक़्त से छूटकर लम्हा कह रहा है अलविदा मिलेंगे कभी किसी मोड़ पर मागेंगे ये दुआ ज़रा सा कुछ हुआ तो है फूलों को हवा भी नहीं है , कौन हिलाता है झूलों को चला गया जो एक मुकाम तो क्या हुआ फिर आएगा एक और उसी जगह धूल उडी और पत्ते गिरे ज़मीन पर ढक गया उनसे एक छोटा सा हसीं घर हटाया हाथों से जब मिट्टी के ज़र्रों को वहां पर फिर महकता हुआ घर मिला सोचकर कि आज नहीं कल आएगा अपने साथ एक नया गुलिस्तान लाएगा और चला मैं फिर उस डगर पर जिस से कभी मैं हो गया था जुदा चार घड़ियाँ बची है भटकती इस जिंदगानी की मोहल्लतें पूरी हुई अब आँखों से छलकते पानी की सोचो की हमारा एक नया सफ़र है इसी पर चलकर एक नया कारवां नज़ारा आएगा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'