Sunday, April 28, 2013

अलविदा




वक़्त से छूटकर लम्हा कह रहा है अलविदा
मिलेंगे कभी किसी मोड़ पर मागेंगे ये दुआ

ज़रा सा कुछ हुआ तो है फूलों को
हवा भी नहीं है , कौन हिलाता है झूलों को
चला गया जो एक मुकाम तो क्या हुआ
फिर आएगा एक और उसी जगह

धूल उडी और पत्ते गिरे ज़मीन पर
ढक गया उनसे एक छोटा सा हसीं घर
हटाया हाथों से जब मिट्टी के ज़र्रों को
वहां पर फिर महकता हुआ घर मिला

सोचकर कि आज नहीं कल आएगा
अपने साथ एक नया गुलिस्तान लाएगा
और चला मैं फिर उस डगर पर
जिस से कभी मैं हो गया था जुदा

चार घड़ियाँ बची है भटकती इस जिंदगानी की
मोहल्लतें पूरी हुई अब आँखों से छलकते पानी की
सोचो की हमारा एक नया सफ़र है
इसी पर चलकर एक नया कारवां नज़ारा आएगा

 
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

शामियाना



बेज़ार बातों से दिल यूँ खफा न हुआ
चला शराफत से हर कहीं मगर फिर भी रुतबा न हुआ

बारहा देखा है लम्हों को गुज़रते हुए
उस पर भी वक़्त हमसे रुसवा न हुआ

बहुत से बेदर्द ज़ख्म मिले हैं तकदीर से
फिर भी हमें इस से शिकवा न हुआ

कई खेमों में मिला था साझेदारी के लिए
रहकर भी साथ उनके , उनका न हुआ

ज़रूरत होने पर जुबां नर्म और बाद में मिर्च होती है
मगर कानों को मेरे कोई झटका न हुआ

कुछ लोग मिलते हैं हमसे अपना मुकाम पाने के लिए
लाख कोशिशों पर भी मतलब परस्तों का दिल अपना न हुआ

मैं कुछ नहीं जानता अपने वजूद के बारे में
मगर मैं चालबाजों के साथ रहकर भी बुरा न हुआ

जश्न  तो था मगर फीका ही रहा मौसम याद का
बहुत तैयारियों के बाद भी कोई जलसा न हुआ

कई पर्दों और चादरों  से सजा रखा था अपने घर को
मगर कोई भी रेशमी शामियाना न हुआ


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Thursday, April 25, 2013

निशां


धीमे से गुज़रे तो निशां दूर जाने पर थे
आज भी मेरे कदम लौट आने पर थे

हसरतें तो कई थी मेरे ज़हन में बेसबब
पर मेरे ख्वाब तो सिरहाने पर थे

हमें तकरीरें दी गयी अपना लहजा ठीक करने की
हम जो हर किसी के निशाने पर थे

ये गलत है कि मेरा ज़हन फरामोश है आवाम से
अरे हमारे भी सैकड़े क़र्ज़ ज़माने पर थे

गुम्बद की गोल नक्काशी और किलों के पथरीले रास्ते
रहने वाले चले गए बस यही अपने ठिकाने पर थे

नैनों से दरिया का उफान जब उठता है  कभी
लगता है कि ये  सारे अश्क पैमाने पर थे

दर्द से रिश्ता यूँ गहरा हो चला था
होश जब आया तो हम मयखाने पर थे


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Wednesday, April 24, 2013

फेहरिस्त




सिर्फ़ नाम ही नहीं, मेरी शख्सियत भी बदल रही है
मेरे साथ अब मेरी ज़रूरत बदल रही है

एक शीशे का कतरा दीवारों से बरी हो गया
इस तरह घर के हर कोने की सूरत बिगड़ गई है

कुछ अलसा गए है कि लगन से काम नहीं कर पाते
यही अब हमारे शरीर की ज़हनीयत बन गई है

ज़मींदोज़ हुई वो ख्वाहिशें जो कभी आस पास थी
कशमकश है उनमे कि वो अब रुक, चल रही हैं

खाली जज़्बात का प्याला उड़ेल दिया चेहरे पर
ये घडी अब आवारगी की मूरत बन गई है

बगल में छाँव का सिरहाना पड़ा है देखो
मगर झुलसी हुई किरणों से रूह जल गई है

थोडा सा डटने का जज्बा ,थोड़ी इन्साफ की आरज़ू
कुछ कुछ मिलाकर जैसे कोई हिम्मत बन गई है

अंतर्मन में कई प्रश्‍न हैं जो हिलोरे ले रहे हैं
हलके इशारों से भी जवाबों की फेहरिस्त बन गई है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Monday, April 22, 2013

सूनापन



गलियों में सूनी सी पड़ी है ज़िन्दगी
अँधेरे खिल गए हैं चुप हुई रोशनी

याद है मुझे वो क्या था माजरा
जब सर पर नहीं था मेरे आसरा
उस वक़्त तनहाई ने मेरी हिम्मत बाँधी

बूंदों से जज्बातों में पड़ गई है सीलन
अश्कों को तरसते हैं अब ये नयन
आखिर इन्हें भी है कितनी तिशनगी

लम्बे होते फसलों से मैं वाकिफ नहीं था
और पीछे मुड़कर देखना भी वाजिब नहीं था
इसीलिए मेरे क़दमों में बेड़ियाँ पड़ी

मेरे सन्देश पर भी हमराह पास नहीं आया
मौत का बहाना  भी उसे रास नहीं आया
उसी वक़्त पलकों में आई थी नमी

दस्तक देने पर भी सफ़र जारी है
पता नहीं अब किस ओर ज़िन्दगी हमारी है
होगी भी ख़त्म या यूँ ही रहेगी अधूरी

बुझी हुई मशाल से भली जलती बाती है
सूनापन ही अब मेरे जीवन का साथी है
अब इसी पर है मेरी उम्मीदें टिकी


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


खाली पन्ना



क्या लिखूं की समझ नहीं आता
सारे नगमें हमसे किनारे हो गए
फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि
ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए

मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था
खोला तो जैसे उजाले हो गए

उदासी भरी चहक है मेरे साथ
उसी के अब हम हवाले हो गए

सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की
पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए

ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं
ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए

खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ
वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए

दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ
खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

कल से...........



नए सफ़र में नए सिरे से आगाज़ करना होगा
अतीत की यादों को दूर से नमस्कार करना होगा

कोई मर्ज़ है जो दवाओं से भी लाइलाज है
उसे अपनी दुआओं से खुशहाल करना होगा

शाम से शहर में कुछ शोर हो रहा है
ख़ामोशी को थोडा अब इख्तियार करना होगा

कि ज़हर की खुराक भी चाहिए थी थोड़ी सी
मगर मौत को अभी इंतज़ार करना होगा

रजामंदी है हमारी कि बोल दो अपनी बात
हमें भी अपनी गुफ्तगू को थोडा आजाद करना होगा

खूब होश गंवाए हमने ; बिना कुछ हासिल किए
अब राहों को मंजिल के लिए बहाल करना होगा

एकमुश्त खामियां नहीं दिखती कभी इंसान में
इन तमाशों का धीरे -धीरे दीदार करना होगा

मैं सोच रहा था की कल से ही मेरी ज़िदगी बदलेगी
मगर इसके लिए मुझे मेरे आज को तैयार करना होगा


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ज़द्दोजहद



चलेगी ये गाडी यूँ ही
न चले तो फिर भी चलाना होगा
ज़िन्दगी अगर ठोकर मारे तो
इसी से जी लगाना होगा

कई ख्वाहिशें रोज़मर्रा के मौसमों में दब जाती है
झरनों से बहती नदियाँ रास्तों से भटक जाती हैं
कभी तो इन्हें अपनी दुनिया मिलेगी
इसी आस में आंसुओं को मोती बनाना होगा

बदनाम वो नहीं जो सड़क पर रहता है
बदनाम वो है जो घर से बेघर रहता है
सभी अंधेरों को कुचलने के लिए हमें
किरणों के रथ को सजाना होगा

ढूंढते रहोगे मगर ज़िन्दगी सच्चाई में ही होगी
कितना भी धुआं होगा एक दिन तो रौशनी साफ़ होगी
जीने की तमन्ना है जिन सभी को
उन्हें जली रोटियों को भी चबाना होगा

कभी कडवे कभी मीठे एहसास होंगे बेहद
पर क्या करें यही है ज़िन्दगी की ज़द्दोज़हद
परेशां दिल को तसल्ली देकर हमें
किसी भी तरह समझाना होगा

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Tuesday, April 16, 2013

मौत का सुकून





साँसों का  पुलिंदा दिल में बोझ बनाता है
ठंडे से फर्श पर बिखरती है जब ज़िन्दगी
वक़्त के आईने में घूमता एक मंज़र
यादों के भंवर को पुकारता है
नम आँखों से फिर कोई चार बूँद गिराए
मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए

एक तारा फलक का तन्हा रात गुज़ारे
भीनी दर्द की खुशबू से शाम यूँ महके
कि कोई सिरा नहीं मिलता ;न खोता ही है
बोझिल साँसों का घर जिसमे बेदर्द ज़िन्दगी रहती है
बेचेहरा सी उम्मीद भी मुझसे दूर जाए
मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए

पलकों के तकिये में कोई ख्वाब बिखरा था
अश्क भी फ़ैल जाए और शोर भी रुक जाए
धूप का शामियाना लिपटे मेरे अक्स में
जब रंज के पन्नों में अनकही हो मेरी
कुछ इसी तरह से ग़मों का धुआं बह जाए
मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए

लहरे खामोश हों और लफ्ज़ जम जाएँ
यूँ ही बर्फ के ढेर में सुलगे चांदनी
छाँव से झुलसती हो जब भीगी पलकें
सूरज से नज़रों कि मुलाक़ात न हो
और शहर से फिर कोई रात को बुलाए
मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


















Friday, April 12, 2013

उमस




शाम से मंज़र बुरा तो है
आ गई है रात अब हुआ क्या है

आधी -अधूरी साँसों का मतलब
जीवन गुज़ारा किताबों की शह में
बारिश हुई जो फिर भी जला है

आवाज़ आई कि गुम हो गया हूँ
जाने कहाँ खो गई है ये रंगत
कहता है मन ये कोई सिरफिरा है

चाक़ू की धार का तेज़ होना
काफ़ी नहीं हैं ये पैने इरादे
उलझते हुए क्या ये सोचा हुआ है

उमस बन रही है बूंदों के घर में
ठण्डी फुहारों को अब भूल जाओ
गर्मी का मौसम उबल जो रहा है

खारिश हुई भी तो दर्द बोलता है
मीठी चुभन भी दगा दे गई जो
बेमन से दिल का बुरा ही हुआ है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Wednesday, April 10, 2013

वक़्त



वक़्त के चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई  हैं
वो धीमे से गुज़र रहा है
ये रफ़्तार इतनी धीरे क्यों है
जो कछुवे कि चाल सा चल रहा है

मेरे सपना भी औंधे मुंह गिर गया
पर इसका दोष भी मेरे सिर गया
इसीलिए मुझे अपना जीना खल रहा है

क्या हो जाए अगले पल में ये वक़्त कि रज़ा है
इसी के इशारे पर चलेंगे तभी इसका मज़ा है
क्योंकि इसका जायका हर घडी बदल रहा है

थक हार कर हम इस फैसले पर आए
कि बचे खुचे पल अब कहीं न जाएं
शायद मेरी पलकों में कोई नया सपना पल रहा है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

बेख्याली


मंजिले कुछ इस तरह मुझसे नाराज़ हो गयी
कि रास्ते भी नहीं जानते अब कौन सा सफर है

चाँद की स्याही से लिखी हुई दास्तां है
छूटता नहीं ये ज़िन्दगी का निशाँ  है
इस बात से मेरा दिल बेखबर है

जंजाल में लटकी और कटती यादें
भूल से पीछे के रास्ते से आये
मेरे ज़हन में अब इनका घर है

सुलगते छींटे पड़े तो गर्म ज़ुबानी हो चली
आँका नहीं हिसाब से और परेशानी हो चली
कहीं खाते में जोड़ तोड़ है , कहीं बहुत गड़बड़ है

बिलखती सोच मरती रातों पर रोती है
अँधेरे की एक डोर बेख्याली से सर नोचती है
जहाँ जहाँ है ज़मीं है वहीँ टिकी अब नज़र है

खिसियाते रहे कि आराम का ठिकाना नहीं है
भूख, प्यास को छोडो यहाँ जीने का ज़माना नहीं है
कुछ इस तरह ज़िन्दगी हो रही बसर है

मिर्च का गट्ठर और बूंदों की दरकार है
नमक का एक झरोखा और उबलती दीवार है
यूँ ही कुछ बेस्वाद सा अपना ये शहर है

लम्हे बेधड़क हैं और रंजिशों की ठौर है
कहानी अभी ख़त्म नहीं इसके बाद और है
अभी मौत आने दो कि ज़िन्दगी का डर है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'



Tuesday, April 2, 2013

बीमार शहर




शहर में आज कुछ शोर सा हो रहा है
ज़ुबानों पर कोई गीत बिलख कर रो रहा है

फ़िज़ाओं मे फैला हुआ है दहशत का धुआँ
उजड़ कर बिखर चुके हैं सबके आशियाँ
सिसकियां आ रही हैं हर किसी की आवाज़ से
बेबस है यहाँ पर हर एक इंसाँ
ये कैसा आलम है जो ज़िंदगी खो रहा है

ज़मीन पर फसल नहीं अब कब्र होती है
इंसानियत यहाँ पर अब बेसब्र होती है
कहीं नहीं है इत्मीनान की नींद आँखों में
जीने की ख्वाहिशें अब बेदर्द होती हैं
वो कौन सा बागबाँ है जो मौत बो रहा है

उम्र तो नयी है मगर सोच यहाँ बुजुर्ग होती है
चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं; मायूसी बड़ी सुर्ख होती है
रहते है सब अपने वतन की ज़मीं पर
मगर शख्सियत हर किसी की बेमुल्क होती है
हर कोई सिर्फ़ अपने बारे में सोच रहा है

सबकी खुशियाँ भी अब गमगीन होती है
सचाई से हटकर ज़िंदगी जब संगीन होती है
भरोसा तो अपने वजूद का भी नहीं होता
फिर दूसरों से उम्मीदें नामुमुकिन होती है
क्यों इंसान बेहोशी की नींद सो रहा है

यूँ न होगी जंग पूरी दहशत की खिलाफत में
जब जुड़ेंगे सभी एक दूसरे की आफत में
तभी होगी एक सुबह रोशनी सी
जियेंगे सभी फिर इंसानियत और शराफ़त
यही एक मसला है जो हम सबको जोड़ रहा है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...