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Showing posts from April, 2013

अलविदा

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वक़्त से छूटकर लम्हा कह रहा है अलविदा मिलेंगे कभी किसी मोड़ पर मागेंगे ये दुआ ज़रा सा कुछ हुआ तो है फूलों को हवा भी नहीं है , कौन हिलाता है झूलों को चला गया जो एक मुकाम तो क्या हुआ फिर आएगा एक और उसी जगह धूल उडी और पत्ते गिरे ज़मीन पर ढक गया उनसे एक छोटा सा हसीं घर हटाया हाथों से जब मिट्टी के ज़र्रों को वहां पर फिर महकता हुआ घर मिला सोचकर कि आज नहीं कल आएगा अपने साथ एक नया गुलिस्तान लाएगा और चला मैं फिर उस डगर पर जिस से कभी मैं हो गया था जुदा चार घड़ियाँ बची है भटकती इस जिंदगानी की मोहल्लतें पूरी हुई अब आँखों से छलकते पानी की सोचो की हमारा एक नया सफ़र है इसी पर चलकर एक नया कारवां नज़ारा आएगा   राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

शामियाना

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बेज़ार बातों से दिल यूँ खफा न हुआ चला शराफत से हर कहीं मगर फिर भी रुतबा न हुआ बारहा देखा है लम्हों को गुज़रते हुए उस पर भी वक़्त हमसे रुसवा न हुआ बहुत से बेदर्द ज़ख्म मिले हैं तकदीर से फिर भी हमें इस से शिकवा न हुआ कई खेमों में मिला था साझेदारी के लिए रहकर भी साथ उनके , उनका न हुआ ज़रूरत होने पर जुबां नर्म और बाद में मिर्च होती है मगर कानों को मेरे कोई झटका न हुआ कुछ लोग मिलते हैं हमसे अपना मुकाम पाने के लिए लाख कोशिशों पर भी मतलब परस्तों का दिल अपना न हुआ मैं कुछ नहीं जानता अपने वजूद के बारे में मगर मैं चालबाजों के साथ रहकर भी बुरा न हुआ जश्न  तो था मगर फीका ही रहा मौसम याद का बहुत तैयारियों के बाद भी कोई जलसा न हुआ कई पर्दों और चादरों  से सजा रखा था अपने घर को मगर कोई भी रेशमी शामियाना न हुआ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

निशां

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धीमे से गुज़रे तो निशां दूर जाने पर थे आज भी मेरे कदम लौट आने पर थे हसरतें तो कई थी मेरे ज़हन में बेसबब पर मेरे ख्वाब तो सिरहाने पर थे हमें तकरीरें दी गयी अपना लहजा ठीक करने की हम जो हर किसी के निशाने पर थे ये गलत है कि मेरा ज़हन फरामोश है आवाम से अरे हमारे भी सैकड़े क़र्ज़ ज़माने पर थे गुम्बद की गोल नक्काशी और किलों के पथरीले रास्ते रहने वाले चले गए बस यही अपने ठिकाने पर थे नैनों से दरिया का उफान जब उठता है  कभी लगता है कि ये  सारे अश्क पैमाने पर थे दर्द से रिश्ता यूँ गहरा हो चला था होश जब आया तो हम मयखाने पर थे राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

फेहरिस्त

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सिर्फ़ नाम ही नहीं, मेरी शख्सियत भी बदल रही है मेरे साथ अब मेरी ज़रूरत बदल रही है एक शीशे का कतरा दीवारों से बरी हो गया इस तरह घर के हर कोने की सूरत बिगड़ गई है कुछ अलसा गए है कि लगन से काम नहीं कर पाते यही अब हमारे शरीर की ज़हनीयत बन गई है ज़मींदोज़ हुई वो ख्वाहिशें जो कभी आस पास थी कशमकश है उनमे कि वो अब रुक, चल रही हैं खाली जज़्बात का प्याला उड़ेल दिया चेहरे पर ये घडी अब आवारगी की मूरत बन गई है बगल में छाँव का सिरहाना पड़ा है देखो मगर झुलसी हुई किरणों से रूह जल गई है थोडा सा डटने का जज्बा ,थोड़ी इन्साफ की आरज़ू कुछ कुछ मिलाकर जैसे कोई हिम्मत बन गई है अंतर्मन में कई प्रश्‍न हैं जो हिलोरे ले रहे हैं हलके इशारों से भी जवाबों की फेहरिस्त बन गई है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

सूनापन

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गलियों में सूनी सी पड़ी है ज़िन्दगी अँधेरे खिल गए हैं चुप हुई रोशनी याद है मुझे वो क्या था माजरा जब सर पर नहीं था मेरे आसरा उस वक़्त तनहाई ने मेरी हिम्मत बाँधी बूंदों से जज्बातों में पड़ गई है सीलन अश्कों को तरसते हैं अब ये नयन आखिर इन्हें भी है कितनी तिशनगी लम्बे होते फसलों से मैं वाकिफ नहीं था और पीछे मुड़कर देखना भी वाजिब नहीं था इसीलिए मेरे क़दमों में बेड़ियाँ पड़ी मेरे सन्देश पर भी हमराह पास नहीं आया मौत का बहाना  भी उसे रास नहीं आया उसी वक़्त पलकों में आई थी नमी दस्तक देने पर भी सफ़र जारी है पता नहीं अब किस ओर ज़िन्दगी हमारी है होगी भी ख़त्म या यूँ ही रहेगी अधूरी बुझी हुई मशाल से भली जलती बाती है सूनापन ही अब मेरे जीवन का साथी है अब इसी पर है मेरी उम्मीदें टिकी राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

खाली पन्ना

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क्या लिखूं की समझ नहीं आता सारे नगमें हमसे किनारे हो गए फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था खोला तो जैसे उजाले हो गए उदासी भरी चहक है मेरे साथ उसी के अब हम हवाले हो गए सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

कल से...........

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नए सफ़र में नए सिरे से आगाज़ करना होगा अतीत की यादों को दूर से नमस्कार करना होगा कोई मर्ज़ है जो दवाओं से भी लाइलाज है उसे अपनी दुआओं से खुशहाल करना होगा शाम से शहर में कुछ शोर हो रहा है ख़ामोशी को थोडा अब इख्तियार करना होगा कि ज़हर की खुराक भी चाहिए थी थोड़ी सी मगर मौत को अभी इंतज़ार करना होगा रजामंदी है हमारी कि बोल दो अपनी बात हमें भी अपनी गुफ्तगू को थोडा आजाद करना होगा खूब होश गंवाए हमने ; बिना कुछ हासिल किए अब राहों को मंजिल के लिए बहाल करना होगा एकमुश्त खामियां नहीं दिखती कभी इंसान में इन तमाशों का धीरे -धीरे दीदार करना होगा मैं सोच रहा था की कल से ही मेरी ज़िदगी बदलेगी मगर इसके लिए मुझे मेरे आज को तैयार करना होगा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ज़द्दोजहद

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चलेगी ये गाडी यूँ ही न चले तो फिर भी चलाना होगा ज़िन्दगी अगर ठोकर मारे तो इसी से जी लगाना होगा कई ख्वाहिशें रोज़मर्रा के मौसमों में दब जाती है झरनों से बहती नदियाँ रास्तों से भटक जाती हैं कभी तो इन्हें अपनी दुनिया मिलेगी इसी आस में आंसुओं को मोती बनाना होगा बदनाम वो नहीं जो सड़क पर रहता है बदनाम वो है जो घर से बेघर रहता है सभी अंधेरों को कुचलने के लिए हमें किरणों के रथ को सजाना होगा ढूंढते रहोगे मगर ज़िन्दगी सच्चाई में ही होगी कितना भी धुआं होगा एक दिन तो रौशनी साफ़ होगी जीने की तमन्ना है जिन सभी को उन्हें जली रोटियों को भी चबाना होगा कभी कडवे कभी मीठे एहसास होंगे बेहद पर क्या करें यही है ज़िन्दगी की ज़द्दोज़हद परेशां दिल को तसल्ली देकर हमें किसी भी तरह समझाना होगा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

मौत का सुकून

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साँसों का  पुलिंदा दिल में बोझ बनाता है ठंडे से फर्श पर बिखरती है जब ज़िन्दगी वक़्त के आईने में घूमता एक मंज़र यादों के भंवर को पुकारता है नम आँखों से फिर कोई चार बूँद गिराए मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए एक तारा फलक का तन्हा रात गुज़ारे भीनी दर्द की खुशबू से शाम यूँ महके कि कोई सिरा नहीं मिलता ;न खोता ही है बोझिल साँसों का घर जिसमे बेदर्द ज़िन्दगी रहती है बेचेहरा सी उम्मीद भी मुझसे दूर जाए मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए पलकों के तकिये में कोई ख्वाब बिखरा था अश्क भी फ़ैल जाए और शोर भी रुक जाए धूप का शामियाना लिपटे मेरे अक्स में जब रंज के पन्नों में अनकही हो मेरी कुछ इसी तरह से ग़मों का धुआं बह जाए मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए लहरे खामोश हों और लफ्ज़ जम जाएँ यूँ ही बर्फ के ढेर में सुलगे चांदनी छाँव से झुलसती हो जब भीगी पलकें सूरज से नज़रों कि मुलाक़ात न हो और शहर से फिर कोई रात को बुलाए मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

उमस

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शाम से मंज़र बुरा तो है आ गई है रात अब हुआ क्या है आधी -अधूरी साँसों का मतलब जीवन गुज़ारा किताबों की शह में बारिश हुई जो फिर भी जला है आवाज़ आई कि गुम हो गया हूँ जाने कहाँ खो गई है ये रंगत कहता है मन ये कोई सिरफिरा है चाक़ू की धार का तेज़ होना काफ़ी नहीं हैं ये पैने इरादे उलझते हुए क्या ये सोचा हुआ है उमस बन रही है बूंदों के घर में ठण्डी फुहारों को अब भूल जाओ गर्मी का मौसम उबल जो रहा है खारिश हुई भी तो दर्द बोलता है मीठी चुभन भी दगा दे गई जो बेमन से दिल का बुरा ही हुआ है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

वक़्त

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वक़्त के चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई  हैं वो धीमे से गुज़र रहा है ये रफ़्तार इतनी धीरे क्यों है जो कछुवे कि चाल सा चल रहा है मेरे सपना भी औंधे मुंह गिर गया पर इसका दोष भी मेरे सिर गया इसीलिए मुझे अपना जीना खल रहा है क्या हो जाए अगले पल में ये वक़्त कि रज़ा है इसी के इशारे पर चलेंगे तभी इसका मज़ा है क्योंकि इसका जायका हर घडी बदल रहा है थक हार कर हम इस फैसले पर आए कि बचे खुचे पल अब कहीं न जाएं शायद मेरी पलकों में कोई नया सपना पल रहा है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

बेख्याली

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मंजिले कुछ इस तरह मुझसे नाराज़ हो गयी कि रास्ते भी नहीं जानते अब कौन सा सफर है चाँद की स्याही से लिखी हुई दास्तां है छूटता नहीं ये ज़िन्दगी का निशाँ  है इस बात से मेरा दिल बेखबर है जंजाल में लटकी और कटती यादें भूल से पीछे के रास्ते से आये मेरे ज़हन में अब इनका घर है सुलगते छींटे पड़े तो गर्म ज़ुबानी हो चली आँका नहीं हिसाब से और परेशानी हो चली कहीं खाते में जोड़ तोड़ है , कहीं बहुत गड़बड़ है बिलखती सोच मरती रातों पर रोती है अँधेरे की एक डोर बेख्याली से सर नोचती है जहाँ जहाँ है ज़मीं है वहीँ टिकी अब नज़र है खिसियाते रहे कि आराम का ठिकाना नहीं है भूख, प्यास को छोडो यहाँ जीने का ज़माना नहीं है कुछ इस तरह ज़िन्दगी हो रही बसर है मिर्च का गट्ठर और बूंदों की दरकार है नमक का एक झरोखा और उबलती दीवार है यूँ ही कुछ बेस्वाद सा अपना ये शहर है लम्हे बेधड़क हैं और रंजिशों की ठौर है कहानी अभी ख़त्म नहीं इसके बाद और है अभी मौत आने दो कि ज़िन्दगी का डर है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

बीमार शहर

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शहर में आज कुछ शोर सा हो रहा है ज़ुबानों पर कोई गीत बिलख कर रो रहा है फ़िज़ाओं मे फैला हुआ है दहशत का धुआँ उजड़ कर बिखर चुके हैं सबके आशियाँ सिसकियां आ रही हैं हर किसी की आवाज़ से बेबस है यहाँ पर हर एक इंसाँ ये कैसा आलम है जो ज़िंदगी खो रहा है ज़मीन पर फसल नहीं अब कब्र होती है इंसानियत यहाँ पर अब बेसब्र होती है कहीं नहीं है इत्मीनान की नींद आँखों में जीने की ख्वाहिशें अब बेदर्द होती हैं वो कौन सा बागबाँ है जो मौत बो रहा है उम्र तो नयी है मगर सोच यहाँ बुजुर्ग होती है चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं; मायूसी बड़ी सुर्ख होती है रहते है सब अपने वतन की ज़मीं पर मगर शख्सियत हर किसी की बेमुल्क होती है हर कोई सिर्फ़ अपने बारे में सोच रहा है सबकी खुशियाँ भी अब गमगीन होती है सचाई से हटकर ज़िंदगी जब संगीन होती है भरोसा तो अपने वजूद का भी नहीं होता फिर दूसरों से उम्मीदें नामुमुकिन होती है क्यों इंसान बेहोशी की नींद सो रहा है यूँ न होगी जंग पूरी दहशत की खिलाफत में जब जुड़ेंगे सभी एक दूसरे की आफत में तभी होगी एक सुबह रोशनी सी जियेंगे सभी फिर इंसानियत और शराफ़त यही एक मसला