Monday, April 22, 2013

ज़द्दोजहद



चलेगी ये गाडी यूँ ही
न चले तो फिर भी चलाना होगा
ज़िन्दगी अगर ठोकर मारे तो
इसी से जी लगाना होगा

कई ख्वाहिशें रोज़मर्रा के मौसमों में दब जाती है
झरनों से बहती नदियाँ रास्तों से भटक जाती हैं
कभी तो इन्हें अपनी दुनिया मिलेगी
इसी आस में आंसुओं को मोती बनाना होगा

बदनाम वो नहीं जो सड़क पर रहता है
बदनाम वो है जो घर से बेघर रहता है
सभी अंधेरों को कुचलने के लिए हमें
किरणों के रथ को सजाना होगा

ढूंढते रहोगे मगर ज़िन्दगी सच्चाई में ही होगी
कितना भी धुआं होगा एक दिन तो रौशनी साफ़ होगी
जीने की तमन्ना है जिन सभी को
उन्हें जली रोटियों को भी चबाना होगा

कभी कडवे कभी मीठे एहसास होंगे बेहद
पर क्या करें यही है ज़िन्दगी की ज़द्दोज़हद
परेशां दिल को तसल्ली देकर हमें
किसी भी तरह समझाना होगा

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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