Thursday, April 25, 2013

निशां


धीमे से गुज़रे तो निशां दूर जाने पर थे
आज भी मेरे कदम लौट आने पर थे

हसरतें तो कई थी मेरे ज़हन में बेसबब
पर मेरे ख्वाब तो सिरहाने पर थे

हमें तकरीरें दी गयी अपना लहजा ठीक करने की
हम जो हर किसी के निशाने पर थे

ये गलत है कि मेरा ज़हन फरामोश है आवाम से
अरे हमारे भी सैकड़े क़र्ज़ ज़माने पर थे

गुम्बद की गोल नक्काशी और किलों के पथरीले रास्ते
रहने वाले चले गए बस यही अपने ठिकाने पर थे

नैनों से दरिया का उफान जब उठता है  कभी
लगता है कि ये  सारे अश्क पैमाने पर थे

दर्द से रिश्ता यूँ गहरा हो चला था
होश जब आया तो हम मयखाने पर थे


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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