Tuesday, April 2, 2013

बीमार शहर




शहर में आज कुछ शोर सा हो रहा है
ज़ुबानों पर कोई गीत बिलख कर रो रहा है

फ़िज़ाओं मे फैला हुआ है दहशत का धुआँ
उजड़ कर बिखर चुके हैं सबके आशियाँ
सिसकियां आ रही हैं हर किसी की आवाज़ से
बेबस है यहाँ पर हर एक इंसाँ
ये कैसा आलम है जो ज़िंदगी खो रहा है

ज़मीन पर फसल नहीं अब कब्र होती है
इंसानियत यहाँ पर अब बेसब्र होती है
कहीं नहीं है इत्मीनान की नींद आँखों में
जीने की ख्वाहिशें अब बेदर्द होती हैं
वो कौन सा बागबाँ है जो मौत बो रहा है

उम्र तो नयी है मगर सोच यहाँ बुजुर्ग होती है
चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं; मायूसी बड़ी सुर्ख होती है
रहते है सब अपने वतन की ज़मीं पर
मगर शख्सियत हर किसी की बेमुल्क होती है
हर कोई सिर्फ़ अपने बारे में सोच रहा है

सबकी खुशियाँ भी अब गमगीन होती है
सचाई से हटकर ज़िंदगी जब संगीन होती है
भरोसा तो अपने वजूद का भी नहीं होता
फिर दूसरों से उम्मीदें नामुमुकिन होती है
क्यों इंसान बेहोशी की नींद सो रहा है

यूँ न होगी जंग पूरी दहशत की खिलाफत में
जब जुड़ेंगे सभी एक दूसरे की आफत में
तभी होगी एक सुबह रोशनी सी
जियेंगे सभी फिर इंसानियत और शराफ़त
यही एक मसला है जो हम सबको जोड़ रहा है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

1 comment:

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...