बीमार शहर
शहर में आज कुछ शोर सा हो रहा है
ज़ुबानों पर कोई गीत बिलख कर रो रहा है
फ़िज़ाओं मे फैला हुआ है दहशत का धुआँ
उजड़ कर बिखर चुके हैं सबके आशियाँ
सिसकियां आ रही हैं हर किसी की आवाज़ से
बेबस है यहाँ पर हर एक इंसाँ
ये कैसा आलम है जो ज़िंदगी खो रहा है
ज़मीन पर फसल नहीं अब कब्र होती है
इंसानियत यहाँ पर अब बेसब्र होती है
कहीं नहीं है इत्मीनान की नींद आँखों में
जीने की ख्वाहिशें अब बेदर्द होती हैं
वो कौन सा बागबाँ है जो मौत बो रहा है
उम्र तो नयी है मगर सोच यहाँ बुजुर्ग होती है
चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं; मायूसी बड़ी सुर्ख होती है
रहते है सब अपने वतन की ज़मीं पर
मगर शख्सियत हर किसी की बेमुल्क होती है
हर कोई सिर्फ़ अपने बारे में सोच रहा है
सबकी खुशियाँ भी अब गमगीन होती है
सचाई से हटकर ज़िंदगी जब संगीन होती है
भरोसा तो अपने वजूद का भी नहीं होता
फिर दूसरों से उम्मीदें नामुमुकिन होती है
क्यों इंसान बेहोशी की नींद सो रहा है
यूँ न होगी जंग पूरी दहशत की खिलाफत में
जब जुड़ेंगे सभी एक दूसरे की आफत में
तभी होगी एक सुबह रोशनी सी
जियेंगे सभी फिर इंसानियत और शराफ़त
यही एक मसला है जो हम सबको जोड़ रहा है
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
great lines...
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