Wednesday, April 10, 2013

बेख्याली


मंजिले कुछ इस तरह मुझसे नाराज़ हो गयी
कि रास्ते भी नहीं जानते अब कौन सा सफर है

चाँद की स्याही से लिखी हुई दास्तां है
छूटता नहीं ये ज़िन्दगी का निशाँ  है
इस बात से मेरा दिल बेखबर है

जंजाल में लटकी और कटती यादें
भूल से पीछे के रास्ते से आये
मेरे ज़हन में अब इनका घर है

सुलगते छींटे पड़े तो गर्म ज़ुबानी हो चली
आँका नहीं हिसाब से और परेशानी हो चली
कहीं खाते में जोड़ तोड़ है , कहीं बहुत गड़बड़ है

बिलखती सोच मरती रातों पर रोती है
अँधेरे की एक डोर बेख्याली से सर नोचती है
जहाँ जहाँ है ज़मीं है वहीँ टिकी अब नज़र है

खिसियाते रहे कि आराम का ठिकाना नहीं है
भूख, प्यास को छोडो यहाँ जीने का ज़माना नहीं है
कुछ इस तरह ज़िन्दगी हो रही बसर है

मिर्च का गट्ठर और बूंदों की दरकार है
नमक का एक झरोखा और उबलती दीवार है
यूँ ही कुछ बेस्वाद सा अपना ये शहर है

लम्हे बेधड़क हैं और रंजिशों की ठौर है
कहानी अभी ख़त्म नहीं इसके बाद और है
अभी मौत आने दो कि ज़िन्दगी का डर है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'



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