Wednesday, April 24, 2013

फेहरिस्त




सिर्फ़ नाम ही नहीं, मेरी शख्सियत भी बदल रही है
मेरे साथ अब मेरी ज़रूरत बदल रही है

एक शीशे का कतरा दीवारों से बरी हो गया
इस तरह घर के हर कोने की सूरत बिगड़ गई है

कुछ अलसा गए है कि लगन से काम नहीं कर पाते
यही अब हमारे शरीर की ज़हनीयत बन गई है

ज़मींदोज़ हुई वो ख्वाहिशें जो कभी आस पास थी
कशमकश है उनमे कि वो अब रुक, चल रही हैं

खाली जज़्बात का प्याला उड़ेल दिया चेहरे पर
ये घडी अब आवारगी की मूरत बन गई है

बगल में छाँव का सिरहाना पड़ा है देखो
मगर झुलसी हुई किरणों से रूह जल गई है

थोडा सा डटने का जज्बा ,थोड़ी इन्साफ की आरज़ू
कुछ कुछ मिलाकर जैसे कोई हिम्मत बन गई है

अंतर्मन में कई प्रश्‍न हैं जो हिलोरे ले रहे हैं
हलके इशारों से भी जवाबों की फेहरिस्त बन गई है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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