Wednesday, April 10, 2013

वक़्त



वक़्त के चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई  हैं
वो धीमे से गुज़र रहा है
ये रफ़्तार इतनी धीरे क्यों है
जो कछुवे कि चाल सा चल रहा है

मेरे सपना भी औंधे मुंह गिर गया
पर इसका दोष भी मेरे सिर गया
इसीलिए मुझे अपना जीना खल रहा है

क्या हो जाए अगले पल में ये वक़्त कि रज़ा है
इसी के इशारे पर चलेंगे तभी इसका मज़ा है
क्योंकि इसका जायका हर घडी बदल रहा है

थक हार कर हम इस फैसले पर आए
कि बचे खुचे पल अब कहीं न जाएं
शायद मेरी पलकों में कोई नया सपना पल रहा है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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