
वक़्त के चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई हैं
वो धीमे से गुज़र रहा है
ये रफ़्तार इतनी धीरे क्यों है
जो कछुवे कि चाल सा चल रहा है
मेरे सपना भी औंधे मुंह गिर गया
पर इसका दोष भी मेरे सिर गया
इसीलिए मुझे अपना जीना खल रहा है
क्या हो जाए अगले पल में ये वक़्त कि रज़ा है
इसी के इशारे पर चलेंगे तभी इसका मज़ा है
क्योंकि इसका जायका हर घडी बदल रहा है
थक हार कर हम इस फैसले पर आए
कि बचे खुचे पल अब कहीं न जाएं
शायद मेरी पलकों में कोई नया सपना पल रहा है
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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