मौत का सुकून





साँसों का  पुलिंदा दिल में बोझ बनाता है
ठंडे से फर्श पर बिखरती है जब ज़िन्दगी
वक़्त के आईने में घूमता एक मंज़र
यादों के भंवर को पुकारता है
नम आँखों से फिर कोई चार बूँद गिराए
मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए

एक तारा फलक का तन्हा रात गुज़ारे
भीनी दर्द की खुशबू से शाम यूँ महके
कि कोई सिरा नहीं मिलता ;न खोता ही है
बोझिल साँसों का घर जिसमे बेदर्द ज़िन्दगी रहती है
बेचेहरा सी उम्मीद भी मुझसे दूर जाए
मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए

पलकों के तकिये में कोई ख्वाब बिखरा था
अश्क भी फ़ैल जाए और शोर भी रुक जाए
धूप का शामियाना लिपटे मेरे अक्स में
जब रंज के पन्नों में अनकही हो मेरी
कुछ इसी तरह से ग़मों का धुआं बह जाए
मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए

लहरे खामोश हों और लफ्ज़ जम जाएँ
यूँ ही बर्फ के ढेर में सुलगे चांदनी
छाँव से झुलसती हो जब भीगी पलकें
सूरज से नज़रों कि मुलाक़ात न हो
और शहर से फिर कोई रात को बुलाए
मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


















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