Friday, April 12, 2013

उमस




शाम से मंज़र बुरा तो है
आ गई है रात अब हुआ क्या है

आधी -अधूरी साँसों का मतलब
जीवन गुज़ारा किताबों की शह में
बारिश हुई जो फिर भी जला है

आवाज़ आई कि गुम हो गया हूँ
जाने कहाँ खो गई है ये रंगत
कहता है मन ये कोई सिरफिरा है

चाक़ू की धार का तेज़ होना
काफ़ी नहीं हैं ये पैने इरादे
उलझते हुए क्या ये सोचा हुआ है

उमस बन रही है बूंदों के घर में
ठण्डी फुहारों को अब भूल जाओ
गर्मी का मौसम उबल जो रहा है

खारिश हुई भी तो दर्द बोलता है
मीठी चुभन भी दगा दे गई जो
बेमन से दिल का बुरा ही हुआ है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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