Monday, April 22, 2013

खाली पन्ना



क्या लिखूं की समझ नहीं आता
सारे नगमें हमसे किनारे हो गए
फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि
ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए

मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था
खोला तो जैसे उजाले हो गए

उदासी भरी चहक है मेरे साथ
उसी के अब हम हवाले हो गए

सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की
पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए

ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं
ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए

खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ
वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए

दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ
खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

1 comment:

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...