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Showing posts from March, 2013

आबो-हवा

इस शहर का माहौल भी बडा अजीब है हर कोई है दूर खुद से मगर मायूसी के बड़ा करीब है बीमार अहसास है सबके घरों में ज़िन्दगी हर किसी की सुस्त पड़ी है छोटी सी लगती है ये दुनिया मगर इसकी परेशानियाँ बहुत बड़ी है हर किसी का यहाँ पर अलग-अलग नसीब है जली जा रही हैं साँसें सबकी ज़िन्दगी से मगर कोई दोस्ती नहीं है होश में रहकर भी जागते नहीं हम ये कैसी शख्सियत है जो बोलती नहीं है कि सोच से हम अपनी कितने गरीब हैं रहगुज़र की तलाश में भटकते रहें हैं पर सुकून को कोई भी ढूंढता नहीं  सभी पड़े हैं अपनी ही धुन में और कोई भी किसी से जुड़ता नहीं हर कोई दूसरे को मानता रकीब है लहजा तो अपना बदल भी दिया पर शिकायत को अपनी बदला नहीं घूमते  रहे हो आबो-हवा में पर ग़ुलामी से कोई भी निकला नहीं बस सपनों के सफ़र में दर्द की भीड़ है इस शहर का माहौल भी बडा अजीब है हर कोई है दूर खुद से मगर मायूसी के बड़ा करीब है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

आवाजाही

चलते जा रहे हैं पहिये ज़िन्दगी के कौन इन्हें मंजिल तक पहुंचाएगा ठोकर लगेगी अगर रास्तों में तो कौन इसको आगे बढ़ाएगा ये दिन भी खाली  हो जायेंगे आसमां की तरह मैं सोचता हूँ कब वो वक़्त आएगा इंसान इतना खुदगर्ज़ भी हो सकता है ये इल्म नहीं था कि रास्ते पर मिले दोस्तों को भी अजनबी कह जाएगा रात की काली दिशाओं में सब खो गया है अब कौन है जो सूरज का माथा सजाएगा खो चुके हैं ज़िन्दगी के हमदर्द साए अब किस पर करें उम्मीद जो साथ निभाएगा अपनी शख्सियत से शिकायत का कोई मसला नहीं है मगर कोई तनहा साँसों को भी आखिर कब तक चलाएगा ढूंढ़ रहे हैं धुंधली चांदनी में सर्द रातें हम फिर गर्मजोशी के माहौल को कौन सजाएगा ज़हर से भरा एक प्याला रखा है अपनी हथेली में गर हालात बद्तर हुए तो ये भी काम आएगा बस इसी तरह वक़्त की आवाजाही लगी रहेगी फिर लम्हों से ज़िन्दगी को कौन सजाएगा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

चलते-रुकते

जज़्बात कुछ इस तरह छलकते हैं कि हम उन्हें भी पैमानों में परखते हैं ख़ुशमिज़ाजी का माहौल हमें पसंद नहीं हम तो दर्द की दुनिया में रहते हैं गिरते रहते हैं यूँ मोतियों के ढेर निगाहों से कुछ इस तरह दरिये बहते हैं खरोचने से भी ज़ख्मों को दर्द नहीं होता यूँ ही हम बेधड़क ग़मों को सहते हैं आशियाँ बनाना बड़ी ज़ददोज़हद का काम है यहाँ तो महल भी ताश की तरह ढहते हैं कोई देख न ले हमें जिंदा यहाँ पर हम तो मौत के सहारे छिप कर निकलते हैं जो चमकते हैं कभी बेख़ौफ़ होकर वो सितारे भी फ़लक से ज़मीं पर बिखरते हैं हमें किसी से कोई शिकवा नहीं हम तो खुद ही को मुजरिम समझते हैं बेरास्ता हो चुकी हैं अब सारी मंजिलें कभी उन पर चलते हैं तो कभी उन पर रुकते हैं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ठीकठाक

कई झांसों में ज़िन्दगी इस तरह उलझी है मेरी शिकायत मुझसे ही है किसी और से नहीं है दो बातों की भी फुर्सत नहीं है गुफ्तगू भी ख़त्म हो गई और चुप्पी रह गई है मेरे पास तमाशों के बहुत ज़खीरे हैं जब इल्जामों की फेहरिस्त होगी तब भी हम सही हैं चंद गिले और पुराना हिसाब किताब बहुत सा हैं भी या फिर मुझे कोई ग़लतफ़हमी है आंच दामन पर लगी और मैले हाथ हो गए पानी से भी धोकर देखा फिर भी गंदगी है क्या करें ढूंढ़ रहे हैं मोह्ल्लतें जीने कि जबसे हमने मरने की खबर सुनी है अरे! मैं तो बड़ा सख्तमिजाज था सबके लिए अब क्यों गलत होने पर भी मेरी गलती नहीं है चलो ठीकठाक हो जाएगा एक दिन माहौल भी अभी बहुत देर है क्यों इतनी जल्दी पड़ी है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ढकोसला

मुझे आजकल खुद की बड़ी ज़रूरत है इसीलिए खुद के लिए बहुत ज्यादा फुर्सत है एक गीत लिखता हूँ खुद के लिए बाकी लोगों के लिए अभी वक़्त है मौसम आज का बड़ा जानलेवा है ठंडी साँसों में भी धुंए का ज़िक्र है दूसरा कोई सोचे या नहीं सोचे कोई गिला नहीं मगर मुझे तो अपनी बड़ी फ़िक्र है मुलायम भी रहा लम्हा मेरे लिए कई बार मगर अब तो इसके इरादे भी सख्त हैं मुंह के सामने पड़े थे कई निवाले मगर खाने में हम बड़े सुस्त हैं कोई उठा दे उम्मीदों का बोझ बड़ा भारी है उठाने में मेरी हालत बड़ी पस्त है न टहनी है न कोई फूल ही खिला है मेरे दरीचे मे अब सूखा हुआ दरख़्त है लोगों से खूब लड़ता हूँ जब मेरे साथ गलत हुआ आखिर मुझमे भी बची हुई थोड़ी  हिम्मत है मैं बड़ा बेशर्म और खुदगर्ज़ हूँ ये पता है मुझे मगर कोई दूसरा कहे तो वो मेरे लिए बेगैरत है बहुत ढकोसला कर लिया कि अपनी बड़ी इज्ज़त है मगर क्या करूँ मेरी ज़िन्दगी अब बेईज्ज़त है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

कुछ नया कुछ पुराना

सरहदें लग गई ये सब सोचने में अब कहाँ ढूंढे सुकून जब नहीं है घरौन्दे में बहती हुई नदिया को तो रोकना चाहता हूँ पर झिझक सी होती है आंसू पोंछने में कई मशक्कतों के बाद एक घर बना था एक मिनट भी नहीं लगा उसे तोड़ने में आफतों का इतना बड़ा समन्दर है पास में हैं बहुत वक़्त लगेगा अभी इसे सूखने में बहुत सारे ज़ख्म हैं मेरे शरीर के दरम्यान अब दर्द नहीं होता है इन्हें खरोचने में हालत के हवाले हो गए हैं अब सारे लम्हे कुछ फायदा नहीं अब इनको सोचने में कुछ नया कुछ पुराना हाल हो गया है इस तरह की परत सी जम गई है ये राज़ खोलने में राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '

एक शाम..............

इस शाम की महफ़िल में एक और तरन्नुम गा लिया दाद देते हैं की शायरी की सब ,पर हाल-ए-दिल छुपा लिया चुभती हुई ख़ामोशी नज़रों में भी भर गई है बातों की एक रोशनी को हमने बुझा दिया लफ्ज़ जुबाँ पर आने से यूँ टूट रहे हैं कि उनकी बेबसी को भी दिल में दबा दिया कितने वक़्त के साए हमारे पास हैं अब ख़त्म हो गया वो दौर जो ज़िन्दगी ने भुला दिया आँखों में जलते हैं सपनों के गलियारे बेबसी ने ज़िन्दगी से सपनो को हटा दिया क़तरा - क़तरा एक हँसी की बूँद कहाँ है हमने तो मुस्कुराहटों को भी रुला दिया बहुत से अँधेरे बिखरी हवाओं में उड़ भी गए रात के धुएँ ने हमको ये बता दिया धुल पड़ी है उन बेघर अरमानों पर भी जिनके तिनकों से बने घर को हमने गिरा दिया राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '

खालीपन

आज खुश है दिल कि सब कुछ है फिर किस बात की कमी है शायद इस मुस्कुराते चेहरे के पीछे ग़म भरे अश्कों की नमी है मैं लौट कर ही इन आंसुओं को पोंछ पाऊंगा पर अभी वक़्त की बहुत कमी है नाराज़गी तो होगी ही जब बहुत इंतज़ार हुआ आखिर वक़्त की सुइंयाँ भी कब थमी हैं मैं क्या करूँगा इस शान-ओ-शौकत का मरने के लिए काफी दो मीटर ज़मीं है गर्म फिजाओं का आलम बड़ा सुकून भरा है हैरान हूँ कि इस पर भी पत्तियों में शबनमी है खालीपन है ज़िन्दगी में अब कुछ बचा नहीं और जज्बातों में केवल बर्फ जमी है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

सब्र ज़िन्दगी का

कुछ नाम लिखे थे कागज़ में कुछ मिट गए कुछ रह गए साज़ छेड़ने गए हम शहर में बेरंग लौटे वहाँ से घर में वहाँ कुछ सिसकते गीत गाए कुछ अश्कों के संग बह गए अजब सा माहौल है इस हसीन शाम का शामिल हर शख्स यहाँ बड़े नाम का पर कोई नहीं है साथ खुद के सब अपने दर्द को छुप कर सह गए वजूद भी खो गया मेरा अपना ढूंढा उसे दर-ब-दर कितना आशियाँ था जो भी मेरा दुनिया में उसके ज़र्रे भी आंधियों से ढह गए महफूज़ है सारे लम्हे यादों में पर दम तोड़ रही है रोशनी चरागों में कोई नहीं है मेरा हमकदम यहाँ सिर्फ मैं और मेरा दर्द तन्हा रह गए बस!बहुत बर्दाश्त कर लिया ग़मों को अब आने दो इन ख़ुशी के मौसमों को सब्र ज़िन्दगी का हम झेलते रहे सोचते हैं की सारे लम्हे बेवजह गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तस्वीर

मंजिलों की तलाश में इधर -उधर भटकता हूँ क्या है मेरी हकीकत इसी सोच में आजकल रहता हूँ ग़मगीन चेहरा और गहरी उदासी ज़रूरत है आंसुओं की ज़रा सी ऐसे ही एहसास अब दिखाकर चलता हूँ तकल्लुफ़ भरा ये मंज़र मुझसे बिछड़ता नहीं मेरा ज़मीर अब मुझसे लड़ता नहीं कि आजकल मैं झूठ के नकाब पहनता हूँ एक रंग से मैं कभी नहीं रंगता हज़ारों से भी  मैं नहीं बनता क्योंकि मैं हर समय शख्सियत बदलता हूँ दिमाग में कुछ था पर कहा कुछ और कौन करेगा अब मेरी बातों पर गौर कि मैं भी अब  धोखे से बच  निकलता हूँ एक डिबिया काजल की अपने पास रखी है उसी पर सभी की निगाहें लगी हैं क्योंकि उसीमे अपनी तस्वीर रखता हूँ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '

हवाओं से गुज़ारिश

हवाओं से गुज़ारिश है कि वो बहती रहें, मौसम से यूं ही गुफ्तगू करती रहें। मिज़ाज कुछ रूखा सा है, मेरे अक्स का, कि अपनी ख़ैरियत का ये वास्ता देता है। ये गौर करने वाली बात है कि मेरा जुनून ही मुझे दिलासा देता है। फिर चाहे कितनी ही मुश्क़िलें बढ़ती रहें। कुछ लफ्ज़ हैं जो बेबसी के पन्नों में दबे हैं, उन्हें पलटकर देखना बहुत ज़रूरी है। किसकी फिराक़ में घूमता है मेरा जज़्बा, हौसलों के बगैर उसकी राहें अधूरी हैं। कुछ इसी तरह से मंज़िलों की तलाश चलती रहे। कोई साया पलकों के घर में बंद रहता है, उसे खुले आसमान से महफूज़ रखना है। धुंधली पड़ी हुई यादों की रोशनी को, ज़िंदगी के अंधेरे में महसूस करना है। बस इसी तरह दिनचर्या चलती रहे। ये फलसफा है कि ग़मों को अपना साथी कहो, फिर किसी और के मोहताज क्या होंगे। जो फ़ासले बढ़ चुके हैं हमारे दरम्यान, उनसे हालात फिर नाराज़ क्या होंगे। उसी से ये ज़िंदगी संवरती रहे। राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ज़िन्दगीनामा

ज़िन्दगी मैंने तुझसे बहुत कुछ है पाया तेरी ही धुन पर ये सारा गीत है बनाया धूप के क़तरे का निशाँ ढूंढता था खोई मंजिल का धुआं ढूंढता था पर मिला घने अँधेरे का साया छाँव की चाशनी मिलती तो बात थी फ़लक से रोशनी गिरती तो बात थी मगर यादों ने दिल को कड़वा बनाया उखड्ती हुई एक आवाज़ आई दिलों के दरों की वो एहसास लाई उसी में तेरा गीत मैंने है पाया किस्सों के पन्ने भी उड़ से गए हैं बेदर्द साए भी जुड़ से गए हैं उन्ही के ग़मों ने हमें है सताया टूटी खिड़की से जब हम देखते हैं धूलों की बारिश में दिन खेलते हैं ये मौसम न जाने कहाँ से है आया लहर जो ख़ुशी की आगे बढ़ी थी मगर उसके आगे अश्कों की झड़ी थी उसी वक़्त आगे अँधेरा था छाया बूदों के पैमाने को पीते गए हम ख्वाबों के ज़ख्मों को सीते गए हम ये सोचते हैं हमने यहाँ क्या लुटाया न रंगों की रुत है न नरमी का मौसम हुआ बाग़ों के घर में कलियों का मातम हर एक फूल को राह से जब हटाया वक़्त जो गुज़रा था कल की सुबह से यहाँ रात आई उसी की वजह से मेरे दर्द का घेरा उसने बढाया कहीं गलियारों में मेरी परछाई सूखी है वहीँ की दीवारों में तन्...

उम्मीदें

एक बुझती हुई चिंगारी को हवाएं चिराग बना देती हैं वीरान रहता है जो चमन उसे कलियां बाग बना देती हैं बिखरी हैं जो पंखुड़ियां मिट्टीं मे कंकड़ बन कर पसीने की दो बूंद उन्हे गुलाब बना देती हैं झोंका सा कुछ आ गया कहीं पर कभी तो फ़िज़ाएं उसे अपनी अदायगी से अज़ाब बना देती हैं उजली सी किरण सुबह की निकलती है कहीं पर तो वक़्त की सुइयां उसे आफताब बना देती हैं कुछ पन्ने खाली होते हैं ज़िन्दगी की कहानी में मगर लम्हों की दास्तान उन्हे किताब बना देती हैं कई हसरतें दिल में यूं ही बस जाती है उनको पाने का जुनून उन्हे ख्वाब बना देती हैं अपने खराब वक़्त पर अफ़सोस कभी मत करना सब्र और हिम्मत उसे लाजवाब बना देती हैं जब भी कभी चुप्पी घर करने लगे दिल में एक छोटी गुफ्तगू उसे आवाज़ बना देती हैं कभी कभी ज़िंदगी का साज़ बेसुरा हो जाता है पर उम्मीदों की सरगम उसे नया राग बना देती हैं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '

गलियारा

गुमान रहा ज़िन्दगी पर बहुत कुछ किया मेरे साथ बस मेरा वजूद ही रहा छूटते हुए नज़ारे हवाओं से रुके कुछ जालसाजी की भीड़ में अच्छे बचे कुछ बस एक रूह का निशाँ ही रहा राग-बैराग तरंगे रहती हैं आसपास पानी के छींटों में और सूखे के साथ सरगर्मियों से आखिरी तक लड़ता रहा यादें बहुत सी सिरहाने पर सहेजी थी मगर वक़्त की उन पर बड़ी बेरुखी थी झूठी आस से जीवन बढ़ता गया आग का क्या है जलेगी और जलाएगी ये तो वक़्त है इसकी मार बड़ी सताएगी सोचने से क्या मिला जो सोचता ही रहा रंगहीन किस्से और कुछ कड़वे सच रखती है शामें मेरे शामियाने में अब मैं हूँ जो नींद से ज़िद करता रहा गफ़लत में है सांस कि एक आसरा है घर तो छूट चूका है बस एक गलियारा है सबसे दूर खुद से मिलने को चलता रहा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

लफ्ज़

भरे हुए लफ़्ज़ों से नज़्म बनती है खाली तो ये सारे चेहरे हैं आँच से बचता फिरता रहा मैं कभी उठता कभी गिरता रहा मैं हर एक कदम पर पहरे हैं अभी ही तो आया हूँ सहरा के दर से पटकने लगा हूँ मैं सर को ही सर से सवालों से घिरकर अकेले हैं बहुत तलाशा बहस की जड़ों को कहूँ भी तो क्या मेरे फैसलों को हम भी जगह पर ठहरे हैं साजों की महफ़िल सजा तो रखी है मगर ग़म की रातें दबाकर रखी हैं राज़ दिलों के भी गहरे हैं   पलटते नहीं है ये लम्हों के मरहम सांचे ढलता रहा है ये मौसम दिन काले हैं या सुनहरे हैं बंद करो इस फ़िज़ूल की बकवास को सुनाऊंगा कहानी इसकी भी बाद को अभी तो जाने के फेरे हैं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

जीवन-सार

क्या देखा क्या सुना सभी बेकार है समय की धार है समय का वार है रिक्त स्मृतियाँ मष्तिष्क में पड़ी हैं उनका भी अपना एक संसार है बुझते दिए हाथों की ओट से जल गए कई प्रकाशों से जीवन चमकदार है बेलगाम रात या फिर लड़खड़ाती सुबह रोज़ जब दर्द हो तो इन्ही का इंतज़ार है पथ के साथी लक्ष्य से भटक चुके हैं उन्हें गंतव्य में लाने को हम तैयार हैं कई वर्षों से सुप्त हो चुकी थी शिराएँ अब व्यथित नसों में रक्तरंजित धार है विचलित है मन की व्यथाएं रोज़ भी कर्कश है समय कभी , कभी मधुर रसधार है चिंता , प्रसन्नता ,सुख और दुःख की बूटी रहेगी अंततः समझ आया यही जीवन -सार है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ये कैसा शहर

ये शहर भी देखो बड़ा परेशान है कि हादसों से जैसे आदमी की पहचान है कुछ ज़ख्म तो अभी-अभी भरे थे दूसरे पल देखा तो एक नया निशान है कई शख्स छुपे हुए है यहाँ इंसानों के भेस में मगर हमें क्या पता वो तो शैतान हैं अभी आये है मोहल्ले में सभी दिए जलाने को मगर धधकती आँच से हर कोई अनजान है बेरहम सरकार भी शोक बस जताती है शोक तो रहेगा ही जब मर रहा इंसान है बिना वजह गया था मेरा अपना बाज़ार में मुझे खबर नहीं थी कि वो उसका आखिरी सलाम है ज़िन्दगी भी आदतन यूँ रही है अब गुज़र कि मौत भी अब लग रही इस तरह आसान है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

राख़

फुर्सत का एक भी लम्हा न निकाला मैंने ज़िन्दगी से कितना दगा किया कितने पहर अर्जियां लगाई थी सुकून की मगर कैसी है ये दास्ताँ मेरे जूनून की कि वक़्त ने जब हमसे किनारा कर लिया कुछ इस तरह जमे हुए थे पैर ज़मीं पर की दौड़ते हुए कोई बैठा हो कहीं पर मगर फिर भी मंजिलों का निशाँ मिटा बेफ़िक्र सी हालत अब कहाँ रह गई साथ हवाओं के वो भी यहाँ बह गई तूफाँ को जैसे एक सहारा हुआ मंद-मंद मुस्कुराते हालात मेरे दर्द पर हँसते हैं इन्ही चालबाजियों में हम रोज़ फंसते हैं अब कहाँ जाएँ कि बचने का कोई रास्ता नहीं मिला बुनी हुई यादों के चादर ओढ़ते हैं रोज़ कुछ न कुछ पुराना सोचते हैं ये सफ़र जैसे कोई राख़ का ढेर बना राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

किस्सा

देखते ही देखते जाने कितने पास हो गयी दूर कहीं पर एक चुप्पी थी जो बाद में आवाज़ हो गयी सूरत-ए-हाल पर खफा क्या होऊं तबीयत भी अब गर्ममिजाज हो गई बाशिंदे बहुत हैं यहाँ पर सूखी गली के उनकी किस्मत भी देखो तो लाजवाब हो गयी एक मैं ही हूँ जो नालायकी का तमगा पहने हूँ बाकी सबकी मंजिले तो बड़ी साफ़ हो गई सभी कहते हैं कि किसी की तरक्की को नापसंद मत करो मगर अपने लिए तो दुनिया जैसे राख हो गई अच्छे दिन थे और सोच भी बड़ी अच्छी थी मगर न जाने ज़िन्दगी क्यों इतनी नापाक हो गई     ख़त्म हुआ ये किस्सा अब निकलता हूँ कहीं और भूल जाना इस घडी को ; ज़िन्दगी की रात हो गई राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

बेहाल

क्या दौर आया है रंजिशों का की मुस्कुराने से भी दर्द बहता है हकीकत कहूँ या ख्वाबों की महफ़िल ज़िन्दगी में हो चुकी है बहुत सी मुश्किल कौन चेहरा छुपाए अपने घर में रहता है साँस का साथी अब तन्हाई का आलम है हुआ कुछ नहीं बस धुंधला सा मौसम है इसी तरह अब मेरा हर दिन गुज़रता है माहौल बना मुसाफिर मेरे कारवां से सारे लफ्ज़ बिखर चुके हैं मेरी दास्ताँ से ये लम्हा भी अब मुझसे नाराज़ रहता है कारनामे क्या हैं बस काली सी रंगत मिली नहीं अभी तक झूठ से फुर्सत वक़्त अब सच छुपाने की शर्त रखता है कामगार शख्सियत की ज़रूरत रहेगी मगर इसमें भी एक सूरत रहेगी अगर कोई चालबाज़ी का मुखौटा पहनता है आया मुसाफिर कितनी दूर मंजिल से वापस कई शिकवे किये मगर फिर भी है बेबस उसे रास्ता छोड़ने का अफ़सोस रहता है चलो खैर जो भी हुआ मुनासिब नहीं था घटते हुए हालातों से मैं वाकिफ नहीं था अब तो हर दिन धीरे से निकलता है परवाह नहीं है खुद से जुड़े मसलों की गुफ्तगू ख़त्म हुई बेकार सी शर्तों की शख्सियत में बेहाली  का अजाब रहता है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

रहमत

जले चरागों से राहें तो बात बने दो कदम चले राहों में तो बात बने रोज़ सोचता हूँ कि अपनी  तबीयत का ख्याल रखूँगा ज़रा अपना दर्द बाँट लू तो बात बने इन्तहा इस घडी की है जो खाली है ज़िन्दगी अगर भरी हो तो बात बने सुर्ख रंग बह रहे हैं मेरी आँखों के दरम्यान काली स्याह से दास्ताँ हो तो बात बने मुह्ज़ुबानी बहुत हुई  किसी को सहारा देने की असल में अगर कोशिश हो तो बात बने एक मूरत मंदिर में है , एक मन के दर पर है कहीं से भी आए लेकिन खुदा आए तो बात बने मुट्ठियों में क़ैद है कई क़तरे दुआओं के खुदा ज़रा इसे खोले तो रहमत की सौगात बने राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

खुश्क दिन

बदलते हालातों का जायजा लेंगे कुछ यूँ अपने जज़्बात रखेंगे पाँव पर छालों ने पूरी परत को उखाड़ा वक़्त बेवक़्त हम मरहम बनेंगे जलन होती है कि  नालायकों को भी कामयाबी मिली अब हम भी ज़रा नालायक बनेगे खुश्क दिन हो गए गर्म मौसम के साथ कोई बात नहीं अब झरने बरसेंगे क्या कहूँ कि दूर हूँ ज़िन्दगी की हकीकत से अब मौत के सपने को साथ रखेंगे पँख लग गए हैं इरादों में तो लगने दो इन्हें बाँधने के लिए रस्सी तैयार करेंगे रुको अभी ख़त्म नहीं हुआ है यादों का दौर कभी-कभी हम भी यादों को याद करेंगे राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

बेरात

कुछ करवटों से भीगी हुई रात है ये रात भी क्या जो यूँ ही बेरात है बहुत सारा ज़िक्र किया लम्बे होते फासलों से मगर फिर भी कोई तो छुपी हुई बात है प्यास से भरा  है ये दिल का समंदर नमक के पानी का भला कोई स्वाद है चाशनी में डूबी हुई है वक़्त की सुइंयाँ क्यों फिर भी कडवे पलों कि याद है खलिश उठी है कि मैं बेहिसाब बोलूं मगर ख़ामोशी से दबी हुई मेरी आवाज़ है जां निसार किया सिरहाने पर पड़ी यादों पर फिर भी बहुत सारे रूठे हुए हालात हैं कांटे ही ठीक थे ज़ख्म सहलाने को मरहम तो लगा नहीं ,महज़ एक गुलाब है चिलचिलाती धूप के पाँव भी गीले हो गए हैं आज शाम छाँव से जो मुलाक़ात है क्या इबारत है ,क्या कहानी है , समझ से परे है मेरे लिये तो ये बस एक सुस्त ख्वाब है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

सुराख़

रोज़ खुद से ही मुखालिफ़्त करता हूँ ज़िन्दगी से कुछ यूँ गुफ्तगू करता हूँ अभी तो कोई काफिला गुज़रता  ही होगा शाम से बस उसी की राह देखता हूँ रंग धुंधले हैं फिजाओं के  इस तरह कि  आसमां  को छोड़ ज़मीं पर उछलता हूँ बागबाँ तो फूलों की हिफाज़त में है ही और मैं काँटों की ज़मात को परखता हूँ बूढ़ा  और नाउम्मीद नज़ारा हो रखा है फिर भी खुद से ख़ुशी की उम्मीद रखता हूँ चार दिन हुए थे कि बहती थी नदिया अब ताउम्र तिशनगी  से तड़पता हूँ रामबाण  है निकलती रुत सुबह की मगर मैं तो रात की शह मे रहता हूँ गौर फ़रमाया तो यकीं हुआ चौखटों  को कि मैं तो एक कदम भी रखने से डरता हूँ झंझट है दूसरों से बातचीत करने में बस खुद से ही खामोश सवाल करता हूँ आवाजाही है झुलसती धुप की आँगन में अभी लेकिन गलीचों मे छीटों की याद रखता हूँ बहुत मोटा बेशर्मी का लबादा ओढ़े था मैं और उस पर कुछ साजिशों के सुराख़ करता हूँ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

आराम

आस पास कोई नहीं है सारी  दिशाएं खो गई अब मेरे सिर्फ साथ मेरी परछाई ही  रह गई बिखरती बात जुबां से गिरी जो अल्फाजों की कमी फिर भी रह गई चंचल चहकती चिड़िया है बगीचे में मगर न जाने कहाँ उसकी आवाज़ दब गई बेरहम खेत भी नाराज़ है इस तरह कि फूलों पर तो अब राख ही रह गई अर्जियां तो लगा रखी  है दर्द घटाने में मगर अश्कों की भीड़ तो बढ़ गई थरथराते सवालों ने मुझे परेशान किया हर बार जवाब की तलाश में सारी ज़िन्दगी लग गई किरकिरी हुई रोज़ जब टहलता हूँ मैं खालीपन की सड़क भी दो जगह बंट गई अभी बहुत काम करना है आराम का समय नहीं है और मैं समझ रहा था कि मेरी ज़िन्दगी बन गई राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

In the Search of Peace of Mind

Nowadays--------------- We wear our clothes but we don't have shame we hear abusive language instead of listening our name                       Where have been stolen                       our fundamental principles                       now we are behaving like                       a fully cunning disciples There is no place for true spirit in heart we are great hypocrites show off is our life's part                        We can do anything                         for earning our money                         for that we would           ...

विस्फोट .....और कितने

षड्यंत्रो की आवाजाही से ये देश टूट चुका है यहाँ का जीवन जैसे रुक चुका है विस्फोट होते ही समाचारों पर खबरों की भीड़ है कोई रो रहा है शोर मे तो कहीं मौन सी एक चीख है बरसों से ये सहने की परंपरा है वही सड़ी हुई लीक है आज ही दर्द होगा; और कुछ दिनो बाद हम खुद कहेंगे सब ठीक है कहाँ जा रहा है मंज़र और कहाँ धुआँ रुका है मंत्री महोदय बड़ी ज़िम्मेदारी से आते हैं हमसे थोड़ी हमदर्दी और सहानुभूति जताते हैं बैसाखी के सहारे चलते हुए  वो भाग खड़े हो जाते हैं कुछ और दबाव हुआ तो मुआवज़ा दे जाते हैं और सुरक्षा मे सेंध के सवालों से बचकर अपना इस्तीफ़ा दे जाते हैं जनमानस इन रोज़मर्रा के नाटकों से थक चुका है अगर करो कड़े क़ानून की वकालत तो सांप्रदायिकता उड़ने लगती है मतदान कहीं कम ना हो जाए इसी जुगत मे सरकारें लगती है राष्ट्रवाद ना जाने किस हाशिए मे पड़ा है ये सोचकर कि मेरी जगह तो अब केवल किताबों और आज़ादी के पर्वों मे बची है आख़िर क्यों अन्याय के सामने हमारा शीश झुका है ज़ख़्म को सहलाओ नहीं उसे दोबारा फोड़ दो ये हादसा फिर से होगा अब इतना सोच...