Wednesday, March 13, 2013

ये कैसा शहर



ये शहर भी देखो बड़ा परेशान है
कि हादसों से जैसे आदमी की पहचान है

कुछ ज़ख्म तो अभी-अभी भरे थे
दूसरे पल देखा तो एक नया निशान है

कई शख्स छुपे हुए है यहाँ इंसानों के भेस में
मगर हमें क्या पता वो तो शैतान हैं

अभी आये है मोहल्ले में सभी दिए जलाने को
मगर धधकती आँच से हर कोई अनजान है

बेरहम सरकार भी शोक बस जताती है
शोक तो रहेगा ही जब मर रहा इंसान है

बिना वजह गया था मेरा अपना बाज़ार में
मुझे खबर नहीं थी कि वो उसका आखिरी सलाम है

ज़िन्दगी भी आदतन यूँ रही है अब गुज़र
कि मौत भी अब लग रही इस तरह आसान है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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