Saturday, March 23, 2013

कुछ नया कुछ पुराना




सरहदें लग गई ये सब सोचने में
अब कहाँ ढूंढे सुकून जब नहीं है घरौन्दे में

बहती हुई नदिया को तो रोकना चाहता हूँ
पर झिझक सी होती है आंसू पोंछने में

कई मशक्कतों के बाद एक घर बना था
एक मिनट भी नहीं लगा उसे तोड़ने में

आफतों का इतना बड़ा समन्दर है पास में हैं
बहुत वक़्त लगेगा अभी इसे सूखने में

बहुत सारे ज़ख्म हैं मेरे शरीर के दरम्यान
अब दर्द नहीं होता है इन्हें खरोचने में

हालत के हवाले हो गए हैं अब सारे लम्हे
कुछ फायदा नहीं अब इनको सोचने में

कुछ नया कुछ पुराना हाल हो गया है इस तरह
की परत सी जम गई है ये राज़ खोलने में


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '

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