राख़
फुर्सत का एक भी लम्हा न निकाला
मैंने ज़िन्दगी से कितना दगा किया
कितने पहर अर्जियां लगाई थी सुकून की
मगर कैसी है ये दास्ताँ मेरे जूनून की
कि वक़्त ने जब हमसे किनारा कर लिया
कुछ इस तरह जमे हुए थे पैर ज़मीं पर
की दौड़ते हुए कोई बैठा हो कहीं पर
मगर फिर भी मंजिलों का निशाँ मिटा
बेफ़िक्र सी हालत अब कहाँ रह गई
साथ हवाओं के वो भी यहाँ बह गई
तूफाँ को जैसे एक सहारा हुआ
मंद-मंद मुस्कुराते हालात मेरे दर्द पर हँसते हैं
इन्ही चालबाजियों में हम रोज़ फंसते हैं
अब कहाँ जाएँ कि बचने का कोई रास्ता नहीं मिला
बुनी हुई यादों के चादर ओढ़ते हैं
रोज़ कुछ न कुछ पुराना सोचते हैं
ये सफ़र जैसे कोई राख़ का ढेर बना
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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