सुराख़
रोज़ खुद से ही मुखालिफ़्त करता हूँ
ज़िन्दगी से कुछ यूँ गुफ्तगू करता हूँ
अभी तो कोई काफिला गुज़रता ही होगा
शाम से बस उसी की राह देखता हूँ
रंग धुंधले हैं फिजाओं के इस तरह
कि आसमां को छोड़ ज़मीं पर उछलता हूँ
बागबाँ तो फूलों की हिफाज़त में है ही
और मैं काँटों की ज़मात को परखता हूँ
बूढ़ा और नाउम्मीद नज़ारा हो रखा है
फिर भी खुद से ख़ुशी की उम्मीद रखता हूँ
चार दिन हुए थे कि बहती थी नदिया
अब ताउम्र तिशनगी से तड़पता हूँ
रामबाण है निकलती रुत सुबह की
मगर मैं तो रात की शह मे रहता हूँ
गौर फ़रमाया तो यकीं हुआ चौखटों को
कि मैं तो एक कदम भी रखने से डरता हूँ
झंझट है दूसरों से बातचीत करने में
बस खुद से ही खामोश सवाल करता हूँ
आवाजाही है झुलसती धुप की आँगन में अभी
लेकिन गलीचों मे छीटों की याद रखता हूँ
बहुत मोटा बेशर्मी का लबादा ओढ़े था मैं
और उस पर कुछ साजिशों के सुराख़ करता हूँ
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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