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विस्फोट .....और कितने




षड्यंत्रो की आवाजाही से ये देश टूट चुका है
यहाँ का जीवन जैसे रुक चुका है

विस्फोट होते ही समाचारों पर खबरों की भीड़ है
कोई रो रहा है शोर मे तो कहीं मौन सी एक चीख है
बरसों से ये सहने की परंपरा है वही सड़ी हुई लीक है
आज ही दर्द होगा; और कुछ दिनो बाद हम खुद कहेंगे सब ठीक है
कहाँ जा रहा है मंज़र और कहाँ धुआँ रुका है

मंत्री महोदय बड़ी ज़िम्मेदारी से आते हैं
हमसे थोड़ी हमदर्दी और सहानुभूति जताते हैं
बैसाखी के सहारे चलते हुए  वो भाग खड़े हो जाते हैं
कुछ और दबाव हुआ तो मुआवज़ा दे जाते हैं
और सुरक्षा मे सेंध के सवालों से बचकर अपना इस्तीफ़ा दे जाते हैं
जनमानस इन रोज़मर्रा के नाटकों से थक चुका है

अगर करो कड़े क़ानून की वकालत तो सांप्रदायिकता उड़ने लगती है
मतदान कहीं कम ना हो जाए इसी जुगत मे सरकारें लगती है
राष्ट्रवाद ना जाने किस हाशिए मे पड़ा है ये सोचकर
कि मेरी जगह तो अब केवल किताबों और आज़ादी के पर्वों मे बची है
आख़िर क्यों अन्याय के सामने हमारा शीश झुका है

ज़ख़्म को सहलाओ नहीं उसे दोबारा फोड़ दो
ये हादसा फिर से होगा अब इतना सोच लो
हां मैं निराशा की बात कर रहा हूँ
क्यूंकी जिन लोगों ने मौत को झेला है उनसे एक बार पूछ लो
कि आख़िर कब तक सहने का हमने ठेका ले रखा है

दीवार गिरी और चार लोग दब गये वहाँ पर
एक मायूसी से भरी हुई हैं ज़िंदगियाँ वहाँ पर
भीषण विध्वंस होते जा रहे है यहाँ पर
अब कौन सी राजनीति चलेगी हिन्दुस्तान पर
बेफ़िक्र हैं प्रशासन और आँसुओं की गैस छोड़ते हैं कारवाँ पर
कौन है जो इनकी चालबाज़ी के आगे टिक सका है

बस अब तो उस सवेरे का इंतज़ार  रहता है
जहाँ खुशहाल मौसम के साथ सूरज उगता है
कई सारे मसले तो हैं सुलझाने के लिए
और उनमे सभी के विचारों का स्वागत होता है
कमियाँ तो हर किसी मे हैं ये जानते हैं हम
मगर उन्हे सुधारने का अथक प्रयास होता है
बस यही एक सपना सबने दिलो मे रख रखा है


राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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खाली पन्ना

क्या लिखूं की समझ नहीं आता सारे नगमें हमसे किनारे हो गए फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था खोला तो जैसे उजाले हो गए उदासी भरी चहक है मेरे साथ उसी के अब हम हवाले हो गए सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

अब रंज नहीं किसी मसले का ......

 अब रंज नहीं किसी मसले का  रोज़ ही तो दर्द को दबाते हैं  खुरच दे कोई अगर बड़े प्यार से  हम चोट को बेरहमी से सहलाते हैं  शब के दामन में एक चाँद का सिरा  चल चांदनी में सबको नहलाते हैं  बाजूबंद पहन कर बड़ा रौब जमाती हो  हम भी आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हैं  लड़खड़ाना कोई गुनाह नहीं होता  गुनहगार तो निगाहों से गिराते हैं  चौराहे पर आज मेरे मेला लगा है  हम घर की दीवारों को सजाते हैं  इतना शरीफ तो नहीं है उसका ज़ेहन  हम खामखा कसीदे पढ़वाते हैं  चोर कौन है जो घर का सामान ले गया  और उनका क्या जो नज़रे चुराते हैं  कौन सा नग़मा अभी तक ग़ज़ल नहीं बना  हम मिसरा और काफिया मिलाते हैं  क्या है मेरा मुस्तकबिल ये तो पता नहीं  पर औरों के मुकद्दर को नकारते हैं  वक़्त बेपरवाह है क्योंकि तुम बेवक़्त हो  क्यों बेकार में घड़ियाँ मिलाते हैं  -राजेश बलूनी प्रतिबिम्ब 

तसल्ली

मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार  इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'