चलते जा रहे हैं पहिये ज़िन्दगी के
कौन इन्हें मंजिल तक पहुंचाएगा
ठोकर लगेगी अगर रास्तों में तो
कौन इसको आगे बढ़ाएगा
ये दिन भी खाली हो जायेंगे आसमां की तरह
मैं सोचता हूँ कब वो वक़्त आएगा
इंसान इतना खुदगर्ज़ भी हो सकता है ये इल्म नहीं था
कि रास्ते पर मिले दोस्तों को भी अजनबी कह जाएगा
रात की काली दिशाओं में सब खो गया है
अब कौन है जो सूरज का माथा सजाएगा
खो चुके हैं ज़िन्दगी के हमदर्द साए
अब किस पर करें उम्मीद जो साथ निभाएगा
अपनी शख्सियत से शिकायत का कोई मसला नहीं है
मगर कोई तनहा साँसों को भी आखिर कब तक चलाएगा
ढूंढ़ रहे हैं धुंधली चांदनी में सर्द रातें हम
फिर गर्मजोशी के माहौल को कौन सजाएगा
ज़हर से भरा एक प्याला रखा है अपनी हथेली में
गर हालात बद्तर हुए तो ये भी काम आएगा
बस इसी तरह वक़्त की आवाजाही लगी रहेगी
फिर लम्हों से ज़िन्दगी को कौन सजाएगा
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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