Wednesday, March 27, 2013

आवाजाही



चलते जा रहे हैं पहिये ज़िन्दगी के
कौन इन्हें मंजिल तक पहुंचाएगा
ठोकर लगेगी अगर रास्तों में तो
कौन इसको आगे बढ़ाएगा

ये दिन भी खाली  हो जायेंगे आसमां की तरह
मैं सोचता हूँ कब वो वक़्त आएगा

इंसान इतना खुदगर्ज़ भी हो सकता है ये इल्म नहीं था
कि रास्ते पर मिले दोस्तों को भी अजनबी कह जाएगा

रात की काली दिशाओं में सब खो गया है
अब कौन है जो सूरज का माथा सजाएगा

खो चुके हैं ज़िन्दगी के हमदर्द साए
अब किस पर करें उम्मीद जो साथ निभाएगा

अपनी शख्सियत से शिकायत का कोई मसला नहीं है
मगर कोई तनहा साँसों को भी आखिर कब तक चलाएगा

ढूंढ़ रहे हैं धुंधली चांदनी में सर्द रातें हम
फिर गर्मजोशी के माहौल को कौन सजाएगा

ज़हर से भरा एक प्याला रखा है अपनी हथेली में
गर हालात बद्तर हुए तो ये भी काम आएगा

बस इसी तरह वक़्त की आवाजाही लगी रहेगी
फिर लम्हों से ज़िन्दगी को कौन सजाएगा

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

No comments:

Post a Comment

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...