Wednesday, March 20, 2013

हवाओं से गुज़ारिश




हवाओं से गुज़ारिश है कि वो बहती रहें,
मौसम से यूं ही गुफ्तगू करती रहें।

मिज़ाज कुछ रूखा सा है, मेरे अक्स का,
कि अपनी ख़ैरियत का ये वास्ता देता है।
ये गौर करने वाली बात है कि मेरा जुनून ही मुझे दिलासा देता है।
फिर चाहे कितनी ही मुश्क़िलें बढ़ती रहें।

कुछ लफ्ज़ हैं जो बेबसी के पन्नों में दबे हैं,
उन्हें पलटकर देखना बहुत ज़रूरी है।
किसकी फिराक़ में घूमता है मेरा जज़्बा,
हौसलों के बगैर उसकी राहें अधूरी हैं।
कुछ इसी तरह से मंज़िलों की तलाश चलती रहे।

कोई साया पलकों के घर में बंद रहता है,
उसे खुले आसमान से महफूज़ रखना है।
धुंधली पड़ी हुई यादों की रोशनी को,
ज़िंदगी के अंधेरे में महसूस करना है।
बस इसी तरह दिनचर्या चलती रहे।

ये फलसफा है कि ग़मों को अपना साथी कहो,
फिर किसी और के मोहताज क्या होंगे।
जो फ़ासले बढ़ चुके हैं हमारे दरम्यान,
उनसे हालात फिर नाराज़ क्या होंगे।
उसी से ये ज़िंदगी संवरती रहे।

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'






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