बेरात
कुछ करवटों से भीगी हुई रात है
ये रात भी क्या जो यूँ ही बेरात है
बहुत सारा ज़िक्र किया लम्बे होते फासलों से
मगर फिर भी कोई तो छुपी हुई बात है
प्यास से भरा है ये दिल का समंदर
नमक के पानी का भला कोई स्वाद है
चाशनी में डूबी हुई है वक़्त की सुइंयाँ
क्यों फिर भी कडवे पलों कि याद है
खलिश उठी है कि मैं बेहिसाब बोलूं
मगर ख़ामोशी से दबी हुई मेरी आवाज़ है
जां निसार किया सिरहाने पर पड़ी यादों पर
फिर भी बहुत सारे रूठे हुए हालात हैं
कांटे ही ठीक थे ज़ख्म सहलाने को
मरहम तो लगा नहीं ,महज़ एक गुलाब है
चिलचिलाती धूप के पाँव भी गीले हो गए हैं
आज शाम छाँव से जो मुलाक़ात है
क्या इबारत है ,क्या कहानी है , समझ से परे है
मेरे लिये तो ये बस एक सुस्त ख्वाब है
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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