Monday, March 11, 2013

बेरात



कुछ करवटों से भीगी हुई रात है
ये रात भी क्या जो यूँ ही बेरात है

बहुत सारा ज़िक्र किया लम्बे होते फासलों से
मगर फिर भी कोई तो छुपी हुई बात है

प्यास से भरा  है ये दिल का समंदर
नमक के पानी का भला कोई स्वाद है

चाशनी में डूबी हुई है वक़्त की सुइंयाँ
क्यों फिर भी कडवे पलों कि याद है

खलिश उठी है कि मैं बेहिसाब बोलूं
मगर ख़ामोशी से दबी हुई मेरी आवाज़ है

जां निसार किया सिरहाने पर पड़ी यादों पर
फिर भी बहुत सारे रूठे हुए हालात हैं

कांटे ही ठीक थे ज़ख्म सहलाने को
मरहम तो लगा नहीं ,महज़ एक गुलाब है

चिलचिलाती धूप के पाँव भी गीले हो गए हैं
आज शाम छाँव से जो मुलाक़ात है

क्या इबारत है ,क्या कहानी है , समझ से परे है
मेरे लिये तो ये बस एक सुस्त ख्वाब है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

No comments:

Post a Comment

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...