Wednesday, March 13, 2013

गलियारा


गुमान रहा ज़िन्दगी पर बहुत कुछ किया
मेरे साथ बस मेरा वजूद ही रहा

छूटते हुए नज़ारे हवाओं से रुके कुछ
जालसाजी की भीड़ में अच्छे बचे कुछ
बस एक रूह का निशाँ ही रहा

राग-बैराग तरंगे रहती हैं आसपास
पानी के छींटों में और सूखे के साथ
सरगर्मियों से आखिरी तक लड़ता रहा

यादें बहुत सी सिरहाने पर सहेजी थी
मगर वक़्त की उन पर बड़ी बेरुखी थी
झूठी आस से जीवन बढ़ता गया

आग का क्या है जलेगी और जलाएगी
ये तो वक़्त है इसकी मार बड़ी सताएगी
सोचने से क्या मिला जो सोचता ही रहा

रंगहीन किस्से और कुछ कड़वे सच
रखती है शामें मेरे शामियाने में अब
मैं हूँ जो नींद से ज़िद करता रहा

गफ़लत में है सांस कि एक आसरा है
घर तो छूट चूका है बस एक गलियारा है
सबसे दूर खुद से मिलने को चलता रहा

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'



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