सब्र ज़िन्दगी का

कुछ नाम लिखे थे कागज़ में
कुछ मिट गए कुछ रह गए

साज़ छेड़ने गए हम शहर में
बेरंग लौटे वहाँ से घर में
वहाँ कुछ सिसकते गीत गाए
कुछ अश्कों के संग बह गए

अजब सा माहौल है इस हसीन शाम का
शामिल हर शख्स यहाँ बड़े नाम का
पर कोई नहीं है साथ खुद के
सब अपने दर्द को छुप कर सह गए

वजूद भी खो गया मेरा अपना
ढूंढा उसे दर-ब-दर कितना
आशियाँ था जो भी मेरा दुनिया में
उसके ज़र्रे भी आंधियों से ढह गए

महफूज़ है सारे लम्हे यादों में
पर दम तोड़ रही है रोशनी चरागों में
कोई नहीं है मेरा हमकदम यहाँ
सिर्फ मैं और मेरा दर्द तन्हा रह गए


बस!बहुत बर्दाश्त कर लिया ग़मों को
अब आने दो इन ख़ुशी के मौसमों को
सब्र ज़िन्दगी का हम झेलते रहे
सोचते हैं की सारे लम्हे बेवजह गए

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'


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