Saturday, March 23, 2013

ढकोसला



मुझे आजकल खुद की बड़ी ज़रूरत है
इसीलिए खुद के लिए बहुत ज्यादा फुर्सत है

एक गीत लिखता हूँ खुद के लिए
बाकी लोगों के लिए अभी वक़्त है

मौसम आज का बड़ा जानलेवा है
ठंडी साँसों में भी धुंए का ज़िक्र है

दूसरा कोई सोचे या नहीं सोचे कोई गिला नहीं
मगर मुझे तो अपनी बड़ी फ़िक्र है

मुलायम भी रहा लम्हा मेरे लिए कई बार
मगर अब तो इसके इरादे भी सख्त हैं

मुंह के सामने पड़े थे कई निवाले
मगर खाने में हम बड़े सुस्त हैं

कोई उठा दे उम्मीदों का बोझ बड़ा भारी है
उठाने में मेरी हालत बड़ी पस्त है

न टहनी है न कोई फूल ही खिला है
मेरे दरीचे मे अब सूखा हुआ दरख़्त है

लोगों से खूब लड़ता हूँ जब मेरे साथ गलत हुआ
आखिर मुझमे भी बची हुई थोड़ी  हिम्मत है

मैं बड़ा बेशर्म और खुदगर्ज़ हूँ ये पता है मुझे
मगर कोई दूसरा कहे तो वो मेरे लिए बेगैरत है

बहुत ढकोसला कर लिया कि अपनी बड़ी इज्ज़त है
मगर क्या करूँ मेरी ज़िन्दगी अब बेईज्ज़त है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

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मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं ....

मेरी सुबह को लोग रतिया समझते हैं  पेड़ की शाखो को वो बगिया समझते हैं  कद्र कोई करता नहीं गजलों की यारों  सब खिल्ली उड़ाने का जरिया समझते हैं...