लफ्ज़



भरे हुए लफ़्ज़ों से नज़्म बनती है
खाली तो ये सारे चेहरे हैं

आँच से बचता फिरता रहा मैं
कभी उठता कभी गिरता रहा मैं
हर एक कदम पर पहरे हैं

अभी ही तो आया हूँ सहरा के दर से
पटकने लगा हूँ मैं सर को ही सर से
सवालों से घिरकर अकेले हैं

बहुत तलाशा बहस की जड़ों को
कहूँ भी तो क्या मेरे फैसलों को
हम भी जगह पर ठहरे हैं

साजों की महफ़िल सजा तो रखी है
मगर ग़म की रातें दबाकर रखी हैं
राज़ दिलों के भी गहरे हैं
 
पलटते नहीं है ये लम्हों के मरहम
सांचे ढलता रहा है ये मौसम
दिन काले हैं या सुनहरे हैं

बंद करो इस फ़िज़ूल की बकवास को
सुनाऊंगा कहानी इसकी भी बाद को
अभी तो जाने के फेरे हैं

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

Comments

Popular posts from this blog

खाली पन्ना

अब रंज नहीं किसी मसले का ......

नया सवेरा