आराम




आस पास कोई नहीं है सारी  दिशाएं खो गई
अब मेरे सिर्फ साथ मेरी परछाई ही  रह गई

बिखरती बात जुबां से गिरी जो
अल्फाजों की कमी फिर भी रह गई

चंचल चहकती चिड़िया है बगीचे में
मगर न जाने कहाँ उसकी आवाज़ दब गई

बेरहम खेत भी नाराज़ है इस तरह
कि फूलों पर तो अब राख ही रह गई

अर्जियां तो लगा रखी  है दर्द घटाने में
मगर अश्कों की भीड़ तो बढ़ गई

थरथराते सवालों ने मुझे परेशान किया हर बार
जवाब की तलाश में सारी ज़िन्दगी लग गई

किरकिरी हुई रोज़ जब टहलता हूँ मैं
खालीपन की सड़क भी दो जगह बंट गई

अभी बहुत काम करना है आराम का समय नहीं है
और मैं समझ रहा था कि मेरी ज़िन्दगी बन गई

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'







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