किस्सा



देखते ही देखते जाने कितने पास हो गयी
दूर कहीं पर एक चुप्पी थी जो बाद में आवाज़ हो गयी

सूरत-ए-हाल पर खफा क्या होऊं
तबीयत भी अब गर्ममिजाज हो गई

बाशिंदे बहुत हैं यहाँ पर सूखी गली के
उनकी किस्मत भी देखो तो लाजवाब हो गयी

एक मैं ही हूँ जो नालायकी का तमगा पहने हूँ
बाकी सबकी मंजिले तो बड़ी साफ़ हो गई

सभी कहते हैं कि किसी की तरक्की को नापसंद मत करो
मगर अपने लिए तो दुनिया जैसे राख हो गई

अच्छे दिन थे और सोच भी बड़ी अच्छी थी
मगर न जाने ज़िन्दगी क्यों इतनी नापाक हो गई    

ख़त्म हुआ ये किस्सा अब निकलता हूँ कहीं और
भूल जाना इस घडी को ; ज़िन्दगी की रात हो गई

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'





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