चलते-रुकते
जज़्बात कुछ इस तरह छलकते हैं
कि हम उन्हें भी पैमानों में परखते हैं
ख़ुशमिज़ाजी का माहौल हमें पसंद नहीं
हम तो दर्द की दुनिया में रहते हैं
गिरते रहते हैं यूँ मोतियों के ढेर
निगाहों से कुछ इस तरह दरिये बहते हैं
खरोचने से भी ज़ख्मों को दर्द नहीं होता
यूँ ही हम बेधड़क ग़मों को सहते हैं
आशियाँ बनाना बड़ी ज़ददोज़हद का काम है
यहाँ तो महल भी ताश की तरह ढहते हैं
कोई देख न ले हमें जिंदा यहाँ पर
हम तो मौत के सहारे छिप कर निकलते हैं
जो चमकते हैं कभी बेख़ौफ़ होकर
वो सितारे भी फ़लक से ज़मीं पर बिखरते हैं
हमें किसी से कोई शिकवा नहीं
हम तो खुद ही को मुजरिम समझते हैं
बेरास्ता हो चुकी हैं अब सारी मंजिलें
कभी उन पर चलते हैं तो कभी उन पर रुकते हैं
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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