बेहाल
क्या दौर आया है रंजिशों का
की मुस्कुराने से भी दर्द बहता है
हकीकत कहूँ या ख्वाबों की महफ़िल
ज़िन्दगी में हो चुकी है बहुत सी मुश्किल
कौन चेहरा छुपाए अपने घर में रहता है
साँस का साथी अब तन्हाई का आलम है
हुआ कुछ नहीं बस धुंधला सा मौसम है
इसी तरह अब मेरा हर दिन गुज़रता है
माहौल बना मुसाफिर मेरे कारवां से
सारे लफ्ज़ बिखर चुके हैं मेरी दास्ताँ से
ये लम्हा भी अब मुझसे नाराज़ रहता है
कारनामे क्या हैं बस काली सी रंगत
मिली नहीं अभी तक झूठ से फुर्सत
वक़्त अब सच छुपाने की शर्त रखता है
कामगार शख्सियत की ज़रूरत रहेगी
मगर इसमें भी एक सूरत रहेगी
अगर कोई चालबाज़ी का मुखौटा पहनता है
आया मुसाफिर कितनी दूर मंजिल से वापस
कई शिकवे किये मगर फिर भी है बेबस
उसे रास्ता छोड़ने का अफ़सोस रहता है
चलो खैर जो भी हुआ मुनासिब नहीं था
घटते हुए हालातों से मैं वाकिफ नहीं था
अब तो हर दिन धीरे से निकलता है
परवाह नहीं है खुद से जुड़े मसलों की
गुफ्तगू ख़त्म हुई बेकार सी शर्तों की
शख्सियत में बेहाली का अजाब रहता है
राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'
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