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बेहाल



क्या दौर आया है रंजिशों का
की मुस्कुराने से भी दर्द बहता है

हकीकत कहूँ या ख्वाबों की महफ़िल
ज़िन्दगी में हो चुकी है बहुत सी मुश्किल
कौन चेहरा छुपाए अपने घर में रहता है

साँस का साथी अब तन्हाई का आलम है
हुआ कुछ नहीं बस धुंधला सा मौसम है
इसी तरह अब मेरा हर दिन गुज़रता है

माहौल बना मुसाफिर मेरे कारवां से
सारे लफ्ज़ बिखर चुके हैं मेरी दास्ताँ से
ये लम्हा भी अब मुझसे नाराज़ रहता है

कारनामे क्या हैं बस काली सी रंगत
मिली नहीं अभी तक झूठ से फुर्सत
वक़्त अब सच छुपाने की शर्त रखता है

कामगार शख्सियत की ज़रूरत रहेगी
मगर इसमें भी एक सूरत रहेगी
अगर कोई चालबाज़ी का मुखौटा पहनता है

आया मुसाफिर कितनी दूर मंजिल से वापस
कई शिकवे किये मगर फिर भी है बेबस
उसे रास्ता छोड़ने का अफ़सोस रहता है

चलो खैर जो भी हुआ मुनासिब नहीं था
घटते हुए हालातों से मैं वाकिफ नहीं था
अब तो हर दिन धीरे से निकलता है

परवाह नहीं है खुद से जुड़े मसलों की
गुफ्तगू ख़त्म हुई बेकार सी शर्तों की
शख्सियत में बेहाली  का अजाब रहता है

राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'




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खाली पन्ना

क्या लिखूं की समझ नहीं आता सारे नगमें हमसे किनारे हो गए फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था खोला तो जैसे उजाले हो गए उदासी भरी चहक है मेरे साथ उसी के अब हम हवाले हो गए सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तसल्ली

मिले इस तरह से कि कई ज़द खुलने लगी मुझे देखकर उनकी सूरत उतरने लगी लगाया नहीं था अंदाज़ा कि इतनी जल्दी मिलेंगे जब मिले तो पैरों की ज़मीन सिमटने लगी वो बुज़दिल हैं जो बिछड़ने पर रोते रहते हैं हमारे लिए तो ज़िन्दगी फिर से खिलने लगी किसी के होने से फर्क पड़ता था पहले अब बेफ़िक्र ये शख्सियत होने लगी तराशे थे कई पत्थर कि  हीरा नसीब होगा मिटटी के जिस्म की मिटटी निकलने लगी हमेशा दौर एक सा कहाँ  रहता है यार  इसी तरह अपनी भी किस्मत बदलने लगी रग़ों में खून का उबाल ज़रूरी है आजकल तभी तो हर बात पर चिंगारी भड़कने लगी बेहोश रहे और वक़्त की कीमत नहीं समझी इसलिए तो अब जिंदगी बोझ लगने लगी सोचते हैं कि हर अंधेरे के बाद रौशनी होगी कुछ इस तरह से मुझको तसल्ली होनी लगी - राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

अब रंज नहीं किसी मसले का ......

 अब रंज नहीं किसी मसले का  रोज़ ही तो दर्द को दबाते हैं  खुरच दे कोई अगर बड़े प्यार से  हम चोट को बेरहमी से सहलाते हैं  शब के दामन में एक चाँद का सिरा  चल चांदनी में सबको नहलाते हैं  बाजूबंद पहन कर बड़ा रौब जमाती हो  हम भी आस्तीन को ऊपर चढ़ाते हैं  लड़खड़ाना कोई गुनाह नहीं होता  गुनहगार तो निगाहों से गिराते हैं  चौराहे पर आज मेरे मेला लगा है  हम घर की दीवारों को सजाते हैं  इतना शरीफ तो नहीं है उसका ज़ेहन  हम खामखा कसीदे पढ़वाते हैं  चोर कौन है जो घर का सामान ले गया  और उनका क्या जो नज़रे चुराते हैं  कौन सा नग़मा अभी तक ग़ज़ल नहीं बना  हम मिसरा और काफिया मिलाते हैं  क्या है मेरा मुस्तकबिल ये तो पता नहीं  पर औरों के मुकद्दर को नकारते हैं  वक़्त बेपरवाह है क्योंकि तुम बेवक़्त हो  क्यों बेकार में घड़ियाँ मिलाते हैं  -राजेश बलूनी प्रतिबिम्ब