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Showing posts from 2013

ये गीत........

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हंसी का गुबार निकले तो भी मज़ा नहीं आता क्यों तेरे चेहरे से ये ग़म चला नहीं जाता कोशिशें बहुत हैं कि किसी तरह तेरा दर्द बाँट लूँ मगर अपने जज़्बात को मैं फिर जता नहीं पाता बेखबर हैं लोग कि मुझे तेरी फ़िक्र है बहुत मगर तू बेखबर रहे ये मुझसे सहा नहीं जाता तेरे मेरे दरम्यान कुछ बातें तो अनकही रहेंगी यूँ ही हर बातों को हमेशा कहा नहीं जाता रात  बेरात ज़िन्दगी उलझी है किसी कश्मकश में जब तक कि किसी सवेरा का पता नहीं आता वो लम्हा भी बेरंग और खाली सा लगता है मुझे जो लम्हा तेरा चेहरा दिखा नहीं जाता कभी न कह पाउँगा तुझसे ये अपने जज़्बात तू अगर समझ ले तो ये गीत लिखा नहीं जाता राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

जनतंत्र

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मेरा ज़हन भी तराशता है सुलगते मंज़रों को कि राह भी मिलती नहीं और घटी सी रंगत है इस तरह हालात भी हो गए बदतर यहाँ खून है पानी बना और हो गया शहर धुआं ऐसे ही हर आदमी की हो रही फजीहत है कौन है जो सरज़मीं पर नफरतों को बो रहा कौन है जो मौत से ज़िन्दगी भिगो रहा इस तरह क्यों आजकल डर रही इंसानियत है मज़हबों की है नहीं ये सियासत की ढाल है कि लोग मरते जा रहे और चुप पड़ी सरकार है निम्नस्तर सोच है और प्राणघातक नीयत है आजकल तो  मानवता के भाव ही स्थिर अचल है रो रही सारी दिशाएं और चिंता का संबल है दिवास्वप्न है नहीं ये दर्दनाक हकीकत है अंसुवन को पोंछने आये है नेता इन्हें तो बस मतदान की रहती है चिंता सहानुभूति तो राजनीती से प्रेरित है खून के छींटें संभालो बहा रहे जो आजकल व्यवस्था प्रशासनिक भी हो रही देखो विफल इस तरह लचरता पर पूरी पूरी लानत है सह रहें है भ्रष्ट तंत्रों की ये बढती महिमा को ध्वनि भी कोई नहीं जो बचा ले इस गरिमा को श्रृगालों  की है ये नगरी उनकी ही हुकूमत है अब नहीं जियंगे हम कीड़ों सा निकृष्ट जीवन या तो हमको मार दो तुम, या तो कर दो अपना अंत नहीं तो अब तुम

आवाजें दुरुस्त हैं............

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आवाजें दुरुस्त हैं मगर चेहरे खामोश हैं कितने पहर बीत गए और आगे कितने रोज़ हैं आँखे खुली रखने में भी कोई फायदा नहीं है यहाँ पर हर एक शख्स रहता बेहोश है कुछ मरम्मत होगी पलों के दरम्यान कभी आजकल मेरी ज़िन्दगी की यही सोच है एक तबका नहीं है ज़िम्मेदार सभी के इशारे हैं अरे यहाँ पर तो सभी लोगों का दोष है आहिस्ता से शामिल हुआ अनकहे सवालों में और जवाब तलाशने  में सबका जोर है खुद क्या करेंगे ये तो ठंडे बस्ते में डाल दिया मगर दूसरों की ताका-झांकी में सबको संतोष है कोई तारीफ़ ना करे तो इतना चल जाता है मगर कोई नज़रों से से गिराए तो ज़िन्दगी बोझ है डाकिया ला रहा है चिट्ठियां बहुत दूर से पर दिल से लिखे संदेशों की अभी भी खोज है गिरने दो अगर नैतिकता गिरती है , क्या कर सकते हैं इतने नीच हो चुके हैं की रहता नहीं होश है धुंए भी शहर में हवा सा फैलते हैं आजकल शायद चीखते हुए लोगों की मौत का ये शोर है जो कोई एक हाथ उठता भी है तो दबा दिया जाता है लोगों की सोच भी अब हो चुकी कमज़ोर है शराब की एक महफ़िल और बिखरते अनाथ बच्चे वाह ! मेरे शहर की ये तस्वीर बड़ी बेजोड़ है लिखूंगा

कुछ रूका-रूका सा......

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बेवजह हुई थी शुरुआत कि अब दिल नहीं लगता कुछ इस तरह से हुई बात कि अब दिल नहीं लगता मुझे मेरी काबिलियत पर हद से ज्यादा यकीन था मगर ये भूली हुई है बात कि अब दिल नहीं लगता पत्थरों सी सख्त हैं कई लोगों की फितरतें सूखे हुए हैं जज़्बात कि अब दिल नहीं लगता उजली धूप से बरसती थी अजब सी रंगत कभी यूँ बेरंग हुई है रात कि अब दिल नहीं लगता पहले दर्द पर मरहम था और ख़ुशी पर खिलखिलाहट पर खामोश हो गए एहसास कि अब दिल नहीं लगता गहरी है लोगों की जड़ें दूर तक चालबाजी में और झूठ की लगी सौगात कि अब दिल नहीं लगता ईमान को रखो कि दोस्तों का घर नहीं चलता वो सच पर करें आघात कि अब दिल नहीं लगता कारनामे हैं बेईमानी के और गिरी हुई साख है फिर पहनों झूठ के नकाब कि अब दिल नहीं लगता सूने आंगन में अब धूलों का बसेरा है नहीं है रोशन बारात कि अब दिल नहीं लगता कभी बस्तों के बोझ में , कहीं कूड़े में बिखरता बचपन गुम हुए वो शरारती अंदाज़ कि अब दिल नहीं लगता बहुत शोर है ज़िंदगी में कि सुकून नहीं मिलता खुशियाँ हुई नाराज़ कि अब दिल नहीं लगता हम इंसान है कोई मशीन नहीं , ये समझो तो सही मत करो बकवास

आफत

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पास बैठे थे याद में ठोकरों को झेलते रह गए हैं बस यहीं ज़िन्दगी से खेलते चाँद भी भरमाता है रोशनी देकर यूँ ही हट गया सूरज जो फिर हाथ वो मलते रहे रख-रखाव ठीक है , फिर भी कितने नुक्स हैं अपनी ऊँगली में  कई गलतियाँ गिनते रहे ये तो खालिस है कहीं कुछ उदासी मामला वर्ना हम तो  इस सफ़र में रोज़ यूँ फंसते रहे कुछ नया नहीं यहाँ,सब नज़र के धोखे हैं चल रहे हैं सब यहाँ पर जैसे कीड़े रेंगते धूल आती जा रही नज़रों के ही साथ में अब बचा कुछ भी नहीं जिसको हम यूँ देखते अब कहाँ पर है ईमान , कहाँ सच का साथ है कौड़ी-कौड़ी लाख में सब यहाँ पर बेचते वक़्त है ये बेरहम ; बक्श दे बड़ी बात है नहीं तो हर एक डगर पर रोज़ हम मरते रहे मन बुरा जीता है अब , हारी तो अच्छाई है क्यों न हम सब सोच कर मन को नहीं टटोलते बुरे के संग हो गए हैं इस तरह ये लोग भी सोचा जिसने भला है उसको दिल से फेंकते कितनी आफत है की मैं जी रहा फिर भी यहाँ मौत भी है बेशरम जो जा रही है लौट के राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

नीयत

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राख की ढेरी बची है जो सब तरफ फ़ैल गई गरजने वाली सुबह भी रात में बदल गई कौन सा ये मोड़ है कुछ समझ नहीं आ रहा छोडो हम भी क्या करें जब राहतें भी थक गई कर्कशी आवाज़ है जो चुभ रही है लोगों में ठिठकती ख़ामोशी भी देखो विष नदी सी बह गई ये समां खिसिया रहा , बात को समझा नहीं मतलबी इस दुनिया में सभी को अपनी पड़ी फिर वही गंतव्य है जहाँ से उठते थे पग और धडकनों की लौ में अब सांस भी जलने लगी चने लोहे के हैं और पत्थरों से भाव हैं आदमी की नीयत न जाने कहाँ तक यूँ बढ़ गई जा रहा हूँ यादों के परिवेश में कुछ खोजने वहां पर भी सूखता सा खून है और कुछ नहीं राजेश बलूनी' प्रतिबिम्ब'

बेरहम

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बेख्याल लम्हे सहेजकर गुज़रती ये शाम है सांस को चलाकर रखूँ ज़िन्दगी का काम है सड़क पर पड़ी लाश को देखने नहीं आया कोई यूँ हादसों में चुप रहना तो अब होता आम है ज़ालिम है ज़माना ये इल्म है मुझे भी मगर लडूंगा इस से तो फिर ज़िन्दगी हराम है कहीं थी इंसानियत अब कहाँ दबी पड़ी है उसके गुम होने का तो अब चर्चा आम है बड़ा नाम हुआ मेरा कि मैं छुपकर चोरी करता हूँ क्या हुआ जो मेरी शख्सियत इतनी बदनाम है मुक्कदर ने बहुत तकलीफ दी मुझे ताउम्र चलो अब तो हाथों की लकीरों में थोडा आराम है बंदिशें लग रही हैं हुनर दिखाने में सभी पर भारत नहीं ये तो उभरता हुआ तालिबान है सौ सिरों के सैकड़ों रावण खड़े है आस पास पता नहीं अब किस जगह पर छुपे मेरे राम हैं लोकतंत्र भी धराशायी हो रहा है दिन-ब-दिन और तानाशाही से दबा हुआ सारा आवाम है डर रहा क्यों आम जन और रो रहा बेबस यहाँ सोच लो अब इस डगर पर एक नया संग्राम है तिलमिला रहा है मन कि जी रहे बेशर्मी से हैं कौन करे झंझट दुनिया में , किस पर रहता गुमान है बेरहम सच्चाई भी कुरेदती है हमेशा मुझे क्योंकि झूठ के बाज़ार में अपना बड़ा नाम है राजेश

साँस का साथी

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छूटी हुई शामें दरख्तों पर फैलती हैं गफ़लत में यादों का धुआं लिए एक सूरज का रहमो करम था उजाले कि रुत में हैं दिन ये गुज़ारे मगर चाँद है कि अँधेरे पिए बाग़ों का घर है पानी के दम पर छोटी ये घासें उखड ही न जाएं मिटटी जो गीली है अंधड़ लिए सूखे ख़ुशी के झरोखों में बंद था एक बार एक नया सा शहर वो पुराने किलों का मलबा लिए एक ओर जैसे शर्म-ओ-ज़हन है काश कि रहती घड़ियाँ यहीं तक मगर वक़्त के हैं यही तो गिले ज़द्दोज़हद है ये कैसी सयानी बरकत क्या होती गुनाहों की शह में मिज़ाज भी हैं सख्ती से बदले हुए रखता समंदर का बिखरा किनारा टूटे हुए पत्थरों की निशानी और सीने में अश्कों के मंज़र लिए अलसा गया है अम्बर कहीं पर बादल जो काले छाए रहे हैं अब तो तमन्ना में जीते रहे मौसम लगा है गर्दिश का जैसे धुआं भी कहानी सा उड़ता हुआ पन्ने सवालों से घिर ही गए सिरे पर बैठी हुई सी लगी है या हाशिये पर लेटे हुए जिंदगानी सांस के साथी भी छूट गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ज़र्रे

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एक ज़र्रा ज़िन्दगी का  कहता है मुझे छोड़ दो और ग़मों की रुत से कुछ हंसी निचोड़ लो छूटते हुए गलियारे हमेशा याद रहेंगे लम्हों से आज इतना बोल दो इतनी ठोकरों से पैरों को यकीन हो गया कि अपने नाखूनों से अब पत्थरों को तोड़ दो यादों का मलबा सुर्ख दिमाग के घेरे में है अब इसका दिल से भी नाता जोड़ दो हाँ ! यहीं बैठा था किताबों को हाथ में लेकर बैगैर हाथों को उठाये पन्नों को मोड़ दो अब चालें नहीं बची है शतरंज के खेल में चलो अब ये खेल खेलना भी छोड़ दो पतंग टूट कर डोर से अलग हो गयी अब धागे से भरी चखरी को भी तोड़ दो नसें खौलती है तो क्या करूँ मैं भी शरीर भी अब नहीं कहता कि बोझ ढो जो चल रहा है चलने दो हमें पर कोई फर्क नहीं कोई नहीं चाहता कि किसी और के बारे में सोच लो कितने दर्द और कितने मरहम ढूंढता फिरूं मैं खुदा से कहता हूँ मुझे ये बख्शीश रोज़ दो बस बहुत हो गया अब चलता हूँ क्या करूँ कहीं ऐसा न हो कि इसे पढ़कर तुम सर नोच लो राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

एक आधा अधूरा

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गर्म है कि रिस्ता धुआँ घुल गया है चाँद मे कुछ सूरज के टुकड़े गल गये हैं शाम मे बेबाक ही की थी ज़िंदगी बसर मैने अब कुछ डरा सहमा रहूँगा मकान मे ज़रा ज़िल्द फट रही है कहकहों के पन्नों की अब रहेंगे वो कहीं पुरानी मुस्कान मे देनदारी कई हो चली हैं कि क़र्ज़ ज़ख़्मों का है और ख़ुशफ़हमी रहे दर्द के निशान मे खराशें है दर्द के कई अनकहे लफ़्ज़ों मे मरहम भी मिलेगा अब ज़हर की दुकान मे समेटा तो था गुफ्तगू को मन के झरोखे मे मगर तल्खियाँ बरस चुकी मेरी ज़ुबान मे एक छूटा सा रेशम का बना हुआ झोंका शायद अपने दायरे से बदल गया तूफान मे अश्क़ के सिकुड़ते जज़्बे ,चेहरों की घटी सी रंगत यही अब बस चुके है आस पास जहान मे शोर के बीच मे पनपता एक शहर का मिज़ाज कहानी बनाता है बिखरती दास्तान मे कुछ भरे से गमों के लतीफ़े हैं ज़हन मे और कुछ सुलगते ज़ज़्बात भी रहे हैं इंसान मे बेदखल मसला है कि ख्वाब की रहगुज़र नहीं ढूँढ लूँगा उसे भी अपने आशियाँ मे कवायद है मेरी की घुट के कहीं ना जियूँ मगर अतीत की यादें भी तो हैं दुनियाँ मे एक आधा अधूरा जज़्बात का समंदर है और बूँदें भी सरकती है मेरे

भ्रष्टाचार =कॉंग्रेस भाग-1

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क्या हो रहा है यहाँ पर सभी बेख़बर हैं ज़िंदगी भी हो रही किसी तरह बसर है एक दूसरे पर खींचते हो दो धारी तलवारें सब तुम आदर और सम्मान लेकिन रहता अब काग़ज़ पर है छींटाकंशी की आदत भी बड़ी ही निराली है दूसरों पर हो तो ठीक है , पर खुद पे हो तो ग़लत है नशे से भरे शहर हैं , धुएँ के उड़ते लबादे नौजवानो ने इस तरह उड़ा दी अपनी फिकर है आदमी तो क्या है ये तो घरों की सड़ती कहानी क्या करें जो व्यवस्था हो रही इतनी लचर है भ्रष्ट है ये आचरण हमे इतना ज्ञात है पर हमेशा से वही खोखला मजबूर डर है त्रासदी तो हो चुकी है देवभूमि के घरों मे चीखता है मौन रूदन , सूखते आँसू नज़र है वाह मेरे प्रशासन की महिमा , टुकड़े कुछ पकड़ा गये राजनीति है ज़रूरी , फिर वो चाहे लाशों पर हैं मसले ये नहीं कि भ्रष्ट व्यवस्था , महंगाई  की मार है बस धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता का मुद्दा ही प्रबल है हे मेरे मंत्री बहुगुणा , गुण बहुत है तुम पे माना ये तुम्हारी चालक लोमड सोच अब तो शीर्ष पर है थक गये हैं , पक गये हैं , नागरिक भी तुमसे(कॉंग्रेस) अब तो एक नया संग्राम तुमको हराने को तत्पर है राजेश बलूनी &

लकीरें

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कैसे हुए ये दिन कि गुज़रते नहीं लम्बी दूरी हो गई मगर फिर भी चलते नहीं ग़ज़ब है कि बहुत सारी हिदायतें है जीने में और लोग हैं कि बात को समझते नहीं दरकिनार किया कई सारी बेसमझ अटकलों को मगर यूँ ही लबों से भी लफ्ज़ तो फिसलते नहीं भीगी हुई मिटटी में कुछ गीली हुई है लकड़ियाँ इसीलिए तो इनके गट्ठर सुलगते नहीं अब कोई रिश्ता नहीं है अतीत के मुहाने से तभी हम उन यादों को पास रखते नहीं बिना सोचे समझे निकाला गुस्से का ग़ुबार क्यों हम बिफरने से पहले परखते नहीं आदतों का तो ईमान है कि सटकर रहेंगी हमसे नाता सच्चाई से फिर क्यों रखते नहीं बहुत शोर -शराबा किया जब अपने हक पर बात आई पर दूसरों के लिए कभी हम लड़ते नहीं बूंदों में भरकर भी सूखे हो चले हैं नैन सही मौकों पर कभी-कभी ये बरसते नहीं लेकिन ये कैसा है जो ज़िन्दगी से चिपका है मजबूरियों से कभी हम बचते नहीं ढेर लगा है बहुत सारे कीमती सामानों का घर में फिर भी ये दिलो-दिमाग खुश लगते नहीं किस्मत पर रोओगे और कहोगे यही लिखा था क्यों अपनी लकीरों को फिर बदलते नहीं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

आगाज़

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अभी गुज़रने से कोई मंजिल पास आएगी अपनी हकीकत की दास्ताँ सबको आज सुनाएगी चलने का सिलसिला लगातार बनाए रखा था तभी जल्द ही सारी मुश्किलें छंट जाएंगी बेहोश मन का एक सिरा कई ख्याल बुनता है और कुछ उल्टा-सीधा हुआ तो सांस पर बात आएगी कंठ से निकले सुर भी मिश्री घोल रहे हैं पाँव से निकली धुल भी कितनी राहें सजाएंगी आक्रोश तो होगा ही जब हर कदम पर ठोकर लगी मगर मुश्किलों के बाद ही तो मुस्कराहट आएगी पेंच बहुत हैं कि खबरदार नहीं होता हूँ जिस्म से मगर सच्ची जीत की खुशबू तो रूह से आएगी कौन बिगड़े हुए ज़माने से मुंहजोरी करता है अपनी किस्मत सही हुई तो इनको नानी याद आएगी कर्मप्रधान है जीवन इसमें कोई शक नहीं भाग्य भरोसे रहने वालों की तो लुटिया डूब जाएगी आगाज़ तो कर चुका हूँ कामयाबी के सफ़र की सच्चाई और हिम्मत मुझे मंजिल तक पहुंचाएगी राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

कशमकश

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  वक़्त की सुरंग से जाने कितने लम्हे निकले कुछ आगे चले गये कुछ रह गये पीछे सुकून भी बेहिसाब सदमों की गिरफ़्त मे है अश्कों ने अब चेहरों पर समंदर है खींचे दो पल के लिए कोई हाथ पर उम्मीदें बांधता है मगर मुश्क़िलों की भीड़ मे सब रह गये पीछे एक कोहरे से सर्द मौसम की आस लगी थी मगर उसने भी धुएँ से अपने लिबास हैं खरीदे दिन का चेहरा मायूस है रात की बेरूख़ी हवाओं से क्योंकि शबनम की आग से जल गये है बगीचे नज़्म है बेसुरी मगर फिर भी साज़ छेड़ता हूँ क्या पता टूटे सुर से कोई नायाब राग निकले आबो हवा भी अब गमगीन हो गयी है आख़िर पत्तियों ने जो बदले हैं बहने के तरीके बेमन से शिरकत की दोस्तों की महफ़िल मे ऊपर खाली आसमान है बंजर धरती है नीचे हालात से लड़ने की मेरी हमेशा क़वायद रही है इरादों ने जो आज़माए हैं संभलने के सलीके कशमकश है की क्या करूँ ज़िंदगी से खफा नहीं हो सकता बहुत से ऐसे पल हैं ज़िंदगी मे जो बेवजह हैं बीते राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

चीथड़े.......

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जलते चराग़ भी देखे कि बुझ गए चलते -चलते ना जाने कदम क्यों रुक गए कई राजा रंक बने और कई रंक राजा इस वक़्त की मेहरबानी से सब बदल गए रसूख वाली शख्सियत भी धूल हो गयी चमचमाते महल भी राख मे ढल गए पसीने की हर एक बूँद का हिसाब लगेगा और खून के सभी छींटो से जिस्म सिहर गए कलह की स्रोतवाहिनी दिमाग़ की उपज है मगर प्रेम भाव बस चेहरों तक सिमट गए काँपते हाथों से सहारा दिया ग़रीब को और अमीर के सामने झुक कर लिपट गए क्या हुआ कि मानसिकता भी निम्न स्तर की हो चली है मानवता के मानक भी कालाबाज़ारी मे गिर गए लाख कोशिश की ज़मीर को संभालने की मगर खनखनाते सिक्कों के आगे इसके उसूल भी बिक गए अब चीथड़ो मे गूँथी हुई है जीवन की कहानी पढ़ने से पहले ही ज़िंदगी के पन्ने फट गए  राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब' 

यूँ भी तो कभी.........

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यूँ भी तो कभी रंग उड़ जाएँ ये सोचता हूँ अपने पलटते ख्वाबों को यूँ ही मोड़ता हूँ चहलकदमी भरी है गलियों के बरामदे मे और खिड़कियों को भी करीने से खोलता हूँ मेरी लिखावट से एक दरिया चेहरों पर बह गया इसीलिए अपनी बेरहम कलम को तोड़ता हूँ इन यादों की मियाद कब तक रहेगी नहीं जानता फिर भी दिन ब दिन इन्ही के बारे मे सोचता हूँ अभी अभी ताज़ा ज़ख़्म है कहीं सूख ना जाए इसे ज़िदा रखने के लिए रोज़ ही खरोचता हूँ बिना स्याही से लिखी है इस तरह अपनी दास्तान कि काग़ज़ के टुकड़ों को भी पढ़ने के लिए जोड़ता हूँ बह रहे हैं तो बहने दो आख़िर इनका मौसम जो है मैं आजकल नज़रों से बहता सैलाब नहीं पोंछता हूँ मेरे लिए ज़िंदगी ने कई रास्तों पर सुराख किए हैं फिर भी मैं कभी अपनी हिम्मत नहीं छोड़ता हूँ कितनी दीवारों के दरम्यान कई शीशों की दरार हैं उन्ही मे मैं अपना चेहरा देखकर बोलता हूँ लगे हाथ कुछ कामयाबी मिली है तो सिर पर चढ़ ना जाए इसी डर से कभी कभी अपना सिर भी फोड़ता हूँ यूँ ना रात की आवारगी जीने देगी मुझे अब कहीं इसीलिए दिन मे ही सोने के लिए चादर ओढ़ता हूँ राजेश बलूनी'प्रतिबिम्ब&

हे हिमालय ........

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हे हिमालय इस धरा तुम सा प्रहरी कौन है तुम हो स्थिर देख सब कुछ हम समझते मौन हैं आज ये परिदृश्य है कि तुम यूँ क्रोधित हो गए नीर नयनों से बहाकर हमको विचलित कर गए मूढ़ता है कि मानव तुम सरीखा बन रहा थोथली विकासधारा को ये तुम पर थोपता आओ मानव तुम निस्संदेह हो बड़े महान लेकिन गर रहोगे तुम अनैतिक , लुप्त होंगे सबके चिन्ह तुमको फुर्सत मिल नहीं रही राजसत्ता के भंवर में भूल कर दायित्व अपने चल पड़े अपने सफ़र में धारा अवगत है तुम्हरी नीचता प्रमाण से देखो अब तुम रो रहे हो अपनों के अवसान से तुम अगर जो अपनी आकांक्षा की परिधि तोड़ते ना यूँ ना अपने सिर को गंगा के तटों पर फोड़ते ना ये तो ईश्वर जानता है संसृति की दुःख  राग बेला आज देखो साथ में सब , कल रहेगा हर अकेला आ गया है अब समय भी रोक कर अपनी ये हठ तुम यूँ न पूरे वन भूषण को मत करो अम्बर में गुम वाह! मेरी सरकार देखो क्या परीक्षण करके आई गोल चक्कर पृथ्वी का देख ऊपर लौट आयी कह रहे हैं चिन्तितों से हम तुम्हारे साथ है दो घडी घडियाली आंसू रोने में भी कोई बात है मेरे पी एम कह रहे मैं कुछ करोड़ों दे रहा बदले में बस अपने हिस्से कुछ

कुछ याद का भरम है.....

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कुछ याद  का भरम है , कुछ बीते कल का निशाँ कहीं रात की बेरुखी है , कहीं सुबह का धुआं खुदगर्जी की धूल लिपटी है अब मेरे अक्स में ढूँढूँ अब अब किस जगह पर अपना ईमान कहानी क्या है कुछ पन्नों की सलवटें थी अधूरे ख्वाबों में अब रहती है दास्ताँ बेशक्ल है अब रोशनी मेरे घर के दरवाज़ों से और छा रहा है देखो अब ये अँधेरा घना सरकते रेतों के ज़र्रे और बेरंग होती दीवारें कुछ यूँ उजड़ता हुआ सा है मेरा आशियाँ ठंडे से एहसास अब ज़हन के आस पास हैं और तल्ख़ बातों से बढती है गर्मियां कुछ खिलाफ हुआ मेरे लिए तकदीर का भरोसा और वक़्त भी नहीं है अब मुझ पर मेहरबां पुरानी सोच का मलबा और गिरती इंसानियत का आलम अब लग रहा हूँ जैसे मैं पत्थरों से बना कुछ बात करूँ तो मुंह सिकुड़ने लगता है खुद ही और ऊपर से ताने देती है खामोशियाँ पास है कौन सब उस छोर पर बैठे हंस रहे हैं करूँ भी तो किस से करूँ अपनी हालत को बयां राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

गफ़लत

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सोचा कि एक नया जहाँ बनाया जाए मेरी मुश्किलों से कोई पर्दा हटाया जाए शायरी से आती दाद का भरोसा भी न हो जो चलो किसी ग़ज़ल को नया काफिया दिया जाए देखिये ये जलजलों की कैफ़ियत बेमानी है हर ज़र्रों से कोई नया सहरा बनाया जाए शज़र की टूटी शाख से कोई परिन्दा नहीं निकला इस पुराने मौसम में उसे खोखला कराया जाए बेज़ार रहा है मरहम कभी ज़ख्म से सटकर भी अब ज़रा एक नए दर्द से जिस्म दबाया जाए आबरू क्या थी उस बेपर्दा शख्स की महफ़िल में उसे होश नहीं चलो अपने नैनो में पर्दा डाला जाए अगल बगल सामानों को करीने से सजा रखा है गफ़लत में माहौल को फिर क्यों डराया जाए लहजा भी सबका अपनी जगह से खामोश है कुछ अपनी जुबानो पर भी ताला लगाया जाए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ज्वाला..........

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ऐ पूरानी यादों के मरहम कभी मेरे घर पर आओ कुछ नहीं तो ज़ख्मों को तुम कुछ पलों में छेड़ जाओ झंझटों से बंध चुकी है ये मेरी आवारगी कोई तो आज़ाद चिलमन का भरोसा देके जाओ अंधभक्ति हो रही है हर डगर हर गाँव में सच्ची श्रद्धा की किरण को यूँ न कोई फेंक आओ बेमियादी सोच है कि हैं नहीं इंसानियत भी किस तरह फिर इक सुबह का दीप दिल में भेज पाओ आंगनों में खिल रही है बारूदों की नस्ल भी अब दहशती माहौल से अब पीछा अपना छोड़ आओ गेंद अब पाले में हैं ये जानकर भी क्या करें अब इस सड़ी सरकार का मन फिर कोई टटोल लाओ सह रहे हैं तेज़ आंधी के फवारे बाग़ों में हम खून के छीटों में चीखों को संभल कर लेके जाओ ज़हनियत है आदमी की कोरी सी अवसाद रश्मि हे प्रभाकर तुम भी सब से यूँ अँधेरा गूंथ लाओ है मेरी संवेदना का ह्रदय भी गदगद है देखो मानसिकता है नपुंसक ताली हाथों से बजाओ ढेर है बीमारियों से मन की ये  निश्लाभ पीड़ा करुण ह्रदय से तो अब तुम कोई ज्वाला फिर जलाओ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

पता नहीं...................

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पता नहीं रंगों से भरी सुबह में हम शामिल हैं मेरी ज़िन्दगी की शाम का कोई एतबार नहीं ज़रा जोड़ दो टुकड़ों को कहीं हंसी गिर जाएगी चुप्पी साधे बैठे हो कोई आवाज़ तो फिर आएगी मगर ये सोचने में क्या रखा है आखिर हमें किसी ख़ुशी का इंतज़ार नहीं जुबां पर एक ही फ़साना है टूटा फूटा कोई दिल का तराना है कि समेटेंगे राज़ ज़िन्दगी के क्योंकि हमारा कोई राजदार नहीं फर्श पर खून से लिप्त है सपना खौलेगा खून पर उसे संभाल कर रखना न जाने कब कहाँ कोई रोशनी मिले हम ज़ख़्मी ज़रूर हैं पर लाचार नहीं छोड़ो बेवक़्त की आरज़ू हमने पाली है यहाँ उजली धूप में भी सुबह काली है पता नहीं किस ओर हमारा संसार है पर हम सोचते हैं कि हमारा कोई संसार नहीं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

सहर

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मुझे अपनी बातों पर गौर करना होगा क्या है हक़ीकत मेरी ये परखना होगा बेफ़िक्र नहीं है मेरी शख्सियत ज़हन मे किसी गम को तो रहना होगा राह थमती नज़र नहीं आ रही है मेरे कदमों को आगे बढ़ना होगा मुश्किलें आएँगी कई मगर रुकूंगा नहीं मुझे अपने इरादों को मज़बूत करना होगा बीच बाज़ार मे बेइज़्ज़त होने का गम नहीं सच की डगर पे हमेशा चलना होगा आँसू अगर बहते हैं तो कोई गिला नहीं मुझे मुस्कराते हुए हालातों से लड़ना होगा बहुत गहरी और काली है ज़िंदगी  की शब पर मुझे तो सहर का इंतज़ार करना होगा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

अलविदा

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वक़्त से छूटकर लम्हा कह रहा है अलविदा मिलेंगे कभी किसी मोड़ पर मागेंगे ये दुआ ज़रा सा कुछ हुआ तो है फूलों को हवा भी नहीं है , कौन हिलाता है झूलों को चला गया जो एक मुकाम तो क्या हुआ फिर आएगा एक और उसी जगह धूल उडी और पत्ते गिरे ज़मीन पर ढक गया उनसे एक छोटा सा हसीं घर हटाया हाथों से जब मिट्टी के ज़र्रों को वहां पर फिर महकता हुआ घर मिला सोचकर कि आज नहीं कल आएगा अपने साथ एक नया गुलिस्तान लाएगा और चला मैं फिर उस डगर पर जिस से कभी मैं हो गया था जुदा चार घड़ियाँ बची है भटकती इस जिंदगानी की मोहल्लतें पूरी हुई अब आँखों से छलकते पानी की सोचो की हमारा एक नया सफ़र है इसी पर चलकर एक नया कारवां नज़ारा आएगा   राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

शामियाना

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बेज़ार बातों से दिल यूँ खफा न हुआ चला शराफत से हर कहीं मगर फिर भी रुतबा न हुआ बारहा देखा है लम्हों को गुज़रते हुए उस पर भी वक़्त हमसे रुसवा न हुआ बहुत से बेदर्द ज़ख्म मिले हैं तकदीर से फिर भी हमें इस से शिकवा न हुआ कई खेमों में मिला था साझेदारी के लिए रहकर भी साथ उनके , उनका न हुआ ज़रूरत होने पर जुबां नर्म और बाद में मिर्च होती है मगर कानों को मेरे कोई झटका न हुआ कुछ लोग मिलते हैं हमसे अपना मुकाम पाने के लिए लाख कोशिशों पर भी मतलब परस्तों का दिल अपना न हुआ मैं कुछ नहीं जानता अपने वजूद के बारे में मगर मैं चालबाजों के साथ रहकर भी बुरा न हुआ जश्न  तो था मगर फीका ही रहा मौसम याद का बहुत तैयारियों के बाद भी कोई जलसा न हुआ कई पर्दों और चादरों  से सजा रखा था अपने घर को मगर कोई भी रेशमी शामियाना न हुआ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

निशां

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धीमे से गुज़रे तो निशां दूर जाने पर थे आज भी मेरे कदम लौट आने पर थे हसरतें तो कई थी मेरे ज़हन में बेसबब पर मेरे ख्वाब तो सिरहाने पर थे हमें तकरीरें दी गयी अपना लहजा ठीक करने की हम जो हर किसी के निशाने पर थे ये गलत है कि मेरा ज़हन फरामोश है आवाम से अरे हमारे भी सैकड़े क़र्ज़ ज़माने पर थे गुम्बद की गोल नक्काशी और किलों के पथरीले रास्ते रहने वाले चले गए बस यही अपने ठिकाने पर थे नैनों से दरिया का उफान जब उठता है  कभी लगता है कि ये  सारे अश्क पैमाने पर थे दर्द से रिश्ता यूँ गहरा हो चला था होश जब आया तो हम मयखाने पर थे राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

फेहरिस्त

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सिर्फ़ नाम ही नहीं, मेरी शख्सियत भी बदल रही है मेरे साथ अब मेरी ज़रूरत बदल रही है एक शीशे का कतरा दीवारों से बरी हो गया इस तरह घर के हर कोने की सूरत बिगड़ गई है कुछ अलसा गए है कि लगन से काम नहीं कर पाते यही अब हमारे शरीर की ज़हनीयत बन गई है ज़मींदोज़ हुई वो ख्वाहिशें जो कभी आस पास थी कशमकश है उनमे कि वो अब रुक, चल रही हैं खाली जज़्बात का प्याला उड़ेल दिया चेहरे पर ये घडी अब आवारगी की मूरत बन गई है बगल में छाँव का सिरहाना पड़ा है देखो मगर झुलसी हुई किरणों से रूह जल गई है थोडा सा डटने का जज्बा ,थोड़ी इन्साफ की आरज़ू कुछ कुछ मिलाकर जैसे कोई हिम्मत बन गई है अंतर्मन में कई प्रश्‍न हैं जो हिलोरे ले रहे हैं हलके इशारों से भी जवाबों की फेहरिस्त बन गई है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

सूनापन

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गलियों में सूनी सी पड़ी है ज़िन्दगी अँधेरे खिल गए हैं चुप हुई रोशनी याद है मुझे वो क्या था माजरा जब सर पर नहीं था मेरे आसरा उस वक़्त तनहाई ने मेरी हिम्मत बाँधी बूंदों से जज्बातों में पड़ गई है सीलन अश्कों को तरसते हैं अब ये नयन आखिर इन्हें भी है कितनी तिशनगी लम्बे होते फसलों से मैं वाकिफ नहीं था और पीछे मुड़कर देखना भी वाजिब नहीं था इसीलिए मेरे क़दमों में बेड़ियाँ पड़ी मेरे सन्देश पर भी हमराह पास नहीं आया मौत का बहाना  भी उसे रास नहीं आया उसी वक़्त पलकों में आई थी नमी दस्तक देने पर भी सफ़र जारी है पता नहीं अब किस ओर ज़िन्दगी हमारी है होगी भी ख़त्म या यूँ ही रहेगी अधूरी बुझी हुई मशाल से भली जलती बाती है सूनापन ही अब मेरे जीवन का साथी है अब इसी पर है मेरी उम्मीदें टिकी राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

खाली पन्ना

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क्या लिखूं की समझ नहीं आता सारे नगमें हमसे किनारे हो गए फिर भी लिखता हूँ ये सोचकर कि ये सारे किस्से भी अब हमारे हो गए मेरी नज़रों में अँधेरा बंद था खोला तो जैसे उजाले हो गए उदासी भरी चहक है मेरे साथ उसी के अब हम हवाले हो गए सब हम से उम्मीद करते हैं सहारे की पर हम तो खुद ही बेसहारे हो गए ज़िन्दगी की भीड़ में मौत छुपती नहीं ज़िन्दगी के टुकड़े मौत के निवाले हो गए खानाबदोशी में जीते थे जो कभी हमारे साथ वो साथी भी अब दुनिया वाले हो गए दास्ताँ मेरी मैं खुद ही सुनता हूँ खली पन्नों के लफ्ज़ भी हमारे हो गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

कल से...........

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नए सफ़र में नए सिरे से आगाज़ करना होगा अतीत की यादों को दूर से नमस्कार करना होगा कोई मर्ज़ है जो दवाओं से भी लाइलाज है उसे अपनी दुआओं से खुशहाल करना होगा शाम से शहर में कुछ शोर हो रहा है ख़ामोशी को थोडा अब इख्तियार करना होगा कि ज़हर की खुराक भी चाहिए थी थोड़ी सी मगर मौत को अभी इंतज़ार करना होगा रजामंदी है हमारी कि बोल दो अपनी बात हमें भी अपनी गुफ्तगू को थोडा आजाद करना होगा खूब होश गंवाए हमने ; बिना कुछ हासिल किए अब राहों को मंजिल के लिए बहाल करना होगा एकमुश्त खामियां नहीं दिखती कभी इंसान में इन तमाशों का धीरे -धीरे दीदार करना होगा मैं सोच रहा था की कल से ही मेरी ज़िदगी बदलेगी मगर इसके लिए मुझे मेरे आज को तैयार करना होगा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ज़द्दोजहद

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चलेगी ये गाडी यूँ ही न चले तो फिर भी चलाना होगा ज़िन्दगी अगर ठोकर मारे तो इसी से जी लगाना होगा कई ख्वाहिशें रोज़मर्रा के मौसमों में दब जाती है झरनों से बहती नदियाँ रास्तों से भटक जाती हैं कभी तो इन्हें अपनी दुनिया मिलेगी इसी आस में आंसुओं को मोती बनाना होगा बदनाम वो नहीं जो सड़क पर रहता है बदनाम वो है जो घर से बेघर रहता है सभी अंधेरों को कुचलने के लिए हमें किरणों के रथ को सजाना होगा ढूंढते रहोगे मगर ज़िन्दगी सच्चाई में ही होगी कितना भी धुआं होगा एक दिन तो रौशनी साफ़ होगी जीने की तमन्ना है जिन सभी को उन्हें जली रोटियों को भी चबाना होगा कभी कडवे कभी मीठे एहसास होंगे बेहद पर क्या करें यही है ज़िन्दगी की ज़द्दोज़हद परेशां दिल को तसल्ली देकर हमें किसी भी तरह समझाना होगा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

मौत का सुकून

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साँसों का  पुलिंदा दिल में बोझ बनाता है ठंडे से फर्श पर बिखरती है जब ज़िन्दगी वक़्त के आईने में घूमता एक मंज़र यादों के भंवर को पुकारता है नम आँखों से फिर कोई चार बूँद गिराए मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए एक तारा फलक का तन्हा रात गुज़ारे भीनी दर्द की खुशबू से शाम यूँ महके कि कोई सिरा नहीं मिलता ;न खोता ही है बोझिल साँसों का घर जिसमे बेदर्द ज़िन्दगी रहती है बेचेहरा सी उम्मीद भी मुझसे दूर जाए मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए पलकों के तकिये में कोई ख्वाब बिखरा था अश्क भी फ़ैल जाए और शोर भी रुक जाए धूप का शामियाना लिपटे मेरे अक्स में जब रंज के पन्नों में अनकही हो मेरी कुछ इसी तरह से ग़मों का धुआं बह जाए मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए लहरे खामोश हों और लफ्ज़ जम जाएँ यूँ ही बर्फ के ढेर में सुलगे चांदनी छाँव से झुलसती हो जब भीगी पलकें सूरज से नज़रों कि मुलाक़ात न हो और शहर से फिर कोई रात को बुलाए मौत का वो सुकून फिर मेरे पास आए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

उमस

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शाम से मंज़र बुरा तो है आ गई है रात अब हुआ क्या है आधी -अधूरी साँसों का मतलब जीवन गुज़ारा किताबों की शह में बारिश हुई जो फिर भी जला है आवाज़ आई कि गुम हो गया हूँ जाने कहाँ खो गई है ये रंगत कहता है मन ये कोई सिरफिरा है चाक़ू की धार का तेज़ होना काफ़ी नहीं हैं ये पैने इरादे उलझते हुए क्या ये सोचा हुआ है उमस बन रही है बूंदों के घर में ठण्डी फुहारों को अब भूल जाओ गर्मी का मौसम उबल जो रहा है खारिश हुई भी तो दर्द बोलता है मीठी चुभन भी दगा दे गई जो बेमन से दिल का बुरा ही हुआ है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

वक़्त

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वक़्त के चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई  हैं वो धीमे से गुज़र रहा है ये रफ़्तार इतनी धीरे क्यों है जो कछुवे कि चाल सा चल रहा है मेरे सपना भी औंधे मुंह गिर गया पर इसका दोष भी मेरे सिर गया इसीलिए मुझे अपना जीना खल रहा है क्या हो जाए अगले पल में ये वक़्त कि रज़ा है इसी के इशारे पर चलेंगे तभी इसका मज़ा है क्योंकि इसका जायका हर घडी बदल रहा है थक हार कर हम इस फैसले पर आए कि बचे खुचे पल अब कहीं न जाएं शायद मेरी पलकों में कोई नया सपना पल रहा है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

बेख्याली

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मंजिले कुछ इस तरह मुझसे नाराज़ हो गयी कि रास्ते भी नहीं जानते अब कौन सा सफर है चाँद की स्याही से लिखी हुई दास्तां है छूटता नहीं ये ज़िन्दगी का निशाँ  है इस बात से मेरा दिल बेखबर है जंजाल में लटकी और कटती यादें भूल से पीछे के रास्ते से आये मेरे ज़हन में अब इनका घर है सुलगते छींटे पड़े तो गर्म ज़ुबानी हो चली आँका नहीं हिसाब से और परेशानी हो चली कहीं खाते में जोड़ तोड़ है , कहीं बहुत गड़बड़ है बिलखती सोच मरती रातों पर रोती है अँधेरे की एक डोर बेख्याली से सर नोचती है जहाँ जहाँ है ज़मीं है वहीँ टिकी अब नज़र है खिसियाते रहे कि आराम का ठिकाना नहीं है भूख, प्यास को छोडो यहाँ जीने का ज़माना नहीं है कुछ इस तरह ज़िन्दगी हो रही बसर है मिर्च का गट्ठर और बूंदों की दरकार है नमक का एक झरोखा और उबलती दीवार है यूँ ही कुछ बेस्वाद सा अपना ये शहर है लम्हे बेधड़क हैं और रंजिशों की ठौर है कहानी अभी ख़त्म नहीं इसके बाद और है अभी मौत आने दो कि ज़िन्दगी का डर है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

बीमार शहर

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शहर में आज कुछ शोर सा हो रहा है ज़ुबानों पर कोई गीत बिलख कर रो रहा है फ़िज़ाओं मे फैला हुआ है दहशत का धुआँ उजड़ कर बिखर चुके हैं सबके आशियाँ सिसकियां आ रही हैं हर किसी की आवाज़ से बेबस है यहाँ पर हर एक इंसाँ ये कैसा आलम है जो ज़िंदगी खो रहा है ज़मीन पर फसल नहीं अब कब्र होती है इंसानियत यहाँ पर अब बेसब्र होती है कहीं नहीं है इत्मीनान की नींद आँखों में जीने की ख्वाहिशें अब बेदर्द होती हैं वो कौन सा बागबाँ है जो मौत बो रहा है उम्र तो नयी है मगर सोच यहाँ बुजुर्ग होती है चेहरे पर मुस्कुराहट नहीं; मायूसी बड़ी सुर्ख होती है रहते है सब अपने वतन की ज़मीं पर मगर शख्सियत हर किसी की बेमुल्क होती है हर कोई सिर्फ़ अपने बारे में सोच रहा है सबकी खुशियाँ भी अब गमगीन होती है सचाई से हटकर ज़िंदगी जब संगीन होती है भरोसा तो अपने वजूद का भी नहीं होता फिर दूसरों से उम्मीदें नामुमुकिन होती है क्यों इंसान बेहोशी की नींद सो रहा है यूँ न होगी जंग पूरी दहशत की खिलाफत में जब जुड़ेंगे सभी एक दूसरे की आफत में तभी होगी एक सुबह रोशनी सी जियेंगे सभी फिर इंसानियत और शराफ़त यही एक मसला

आबो-हवा

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इस शहर का माहौल भी बडा अजीब है हर कोई है दूर खुद से मगर मायूसी के बड़ा करीब है बीमार अहसास है सबके घरों में ज़िन्दगी हर किसी की सुस्त पड़ी है छोटी सी लगती है ये दुनिया मगर इसकी परेशानियाँ बहुत बड़ी है हर किसी का यहाँ पर अलग-अलग नसीब है जली जा रही हैं साँसें सबकी ज़िन्दगी से मगर कोई दोस्ती नहीं है होश में रहकर भी जागते नहीं हम ये कैसी शख्सियत है जो बोलती नहीं है कि सोच से हम अपनी कितने गरीब हैं रहगुज़र की तलाश में भटकते रहें हैं पर सुकून को कोई भी ढूंढता नहीं  सभी पड़े हैं अपनी ही धुन में और कोई भी किसी से जुड़ता नहीं हर कोई दूसरे को मानता रकीब है लहजा तो अपना बदल भी दिया पर शिकायत को अपनी बदला नहीं घूमते  रहे हो आबो-हवा में पर ग़ुलामी से कोई भी निकला नहीं बस सपनों के सफ़र में दर्द की भीड़ है इस शहर का माहौल भी बडा अजीब है हर कोई है दूर खुद से मगर मायूसी के बड़ा करीब है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

आवाजाही

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चलते जा रहे हैं पहिये ज़िन्दगी के कौन इन्हें मंजिल तक पहुंचाएगा ठोकर लगेगी अगर रास्तों में तो कौन इसको आगे बढ़ाएगा ये दिन भी खाली  हो जायेंगे आसमां की तरह मैं सोचता हूँ कब वो वक़्त आएगा इंसान इतना खुदगर्ज़ भी हो सकता है ये इल्म नहीं था कि रास्ते पर मिले दोस्तों को भी अजनबी कह जाएगा रात की काली दिशाओं में सब खो गया है अब कौन है जो सूरज का माथा सजाएगा खो चुके हैं ज़िन्दगी के हमदर्द साए अब किस पर करें उम्मीद जो साथ निभाएगा अपनी शख्सियत से शिकायत का कोई मसला नहीं है मगर कोई तनहा साँसों को भी आखिर कब तक चलाएगा ढूंढ़ रहे हैं धुंधली चांदनी में सर्द रातें हम फिर गर्मजोशी के माहौल को कौन सजाएगा ज़हर से भरा एक प्याला रखा है अपनी हथेली में गर हालात बद्तर हुए तो ये भी काम आएगा बस इसी तरह वक़्त की आवाजाही लगी रहेगी फिर लम्हों से ज़िन्दगी को कौन सजाएगा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

चलते-रुकते

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जज़्बात कुछ इस तरह छलकते हैं कि हम उन्हें भी पैमानों में परखते हैं ख़ुशमिज़ाजी का माहौल हमें पसंद नहीं हम तो दर्द की दुनिया में रहते हैं गिरते रहते हैं यूँ मोतियों के ढेर निगाहों से कुछ इस तरह दरिये बहते हैं खरोचने से भी ज़ख्मों को दर्द नहीं होता यूँ ही हम बेधड़क ग़मों को सहते हैं आशियाँ बनाना बड़ी ज़ददोज़हद का काम है यहाँ तो महल भी ताश की तरह ढहते हैं कोई देख न ले हमें जिंदा यहाँ पर हम तो मौत के सहारे छिप कर निकलते हैं जो चमकते हैं कभी बेख़ौफ़ होकर वो सितारे भी फ़लक से ज़मीं पर बिखरते हैं हमें किसी से कोई शिकवा नहीं हम तो खुद ही को मुजरिम समझते हैं बेरास्ता हो चुकी हैं अब सारी मंजिलें कभी उन पर चलते हैं तो कभी उन पर रुकते हैं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ठीकठाक

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कई झांसों में ज़िन्दगी इस तरह उलझी है मेरी शिकायत मुझसे ही है किसी और से नहीं है दो बातों की भी फुर्सत नहीं है गुफ्तगू भी ख़त्म हो गई और चुप्पी रह गई है मेरे पास तमाशों के बहुत ज़खीरे हैं जब इल्जामों की फेहरिस्त होगी तब भी हम सही हैं चंद गिले और पुराना हिसाब किताब बहुत सा हैं भी या फिर मुझे कोई ग़लतफ़हमी है आंच दामन पर लगी और मैले हाथ हो गए पानी से भी धोकर देखा फिर भी गंदगी है क्या करें ढूंढ़ रहे हैं मोह्ल्लतें जीने कि जबसे हमने मरने की खबर सुनी है अरे! मैं तो बड़ा सख्तमिजाज था सबके लिए अब क्यों गलत होने पर भी मेरी गलती नहीं है चलो ठीकठाक हो जाएगा एक दिन माहौल भी अभी बहुत देर है क्यों इतनी जल्दी पड़ी है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ढकोसला

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मुझे आजकल खुद की बड़ी ज़रूरत है इसीलिए खुद के लिए बहुत ज्यादा फुर्सत है एक गीत लिखता हूँ खुद के लिए बाकी लोगों के लिए अभी वक़्त है मौसम आज का बड़ा जानलेवा है ठंडी साँसों में भी धुंए का ज़िक्र है दूसरा कोई सोचे या नहीं सोचे कोई गिला नहीं मगर मुझे तो अपनी बड़ी फ़िक्र है मुलायम भी रहा लम्हा मेरे लिए कई बार मगर अब तो इसके इरादे भी सख्त हैं मुंह के सामने पड़े थे कई निवाले मगर खाने में हम बड़े सुस्त हैं कोई उठा दे उम्मीदों का बोझ बड़ा भारी है उठाने में मेरी हालत बड़ी पस्त है न टहनी है न कोई फूल ही खिला है मेरे दरीचे मे अब सूखा हुआ दरख़्त है लोगों से खूब लड़ता हूँ जब मेरे साथ गलत हुआ आखिर मुझमे भी बची हुई थोड़ी  हिम्मत है मैं बड़ा बेशर्म और खुदगर्ज़ हूँ ये पता है मुझे मगर कोई दूसरा कहे तो वो मेरे लिए बेगैरत है बहुत ढकोसला कर लिया कि अपनी बड़ी इज्ज़त है मगर क्या करूँ मेरी ज़िन्दगी अब बेईज्ज़त है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

कुछ नया कुछ पुराना

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सरहदें लग गई ये सब सोचने में अब कहाँ ढूंढे सुकून जब नहीं है घरौन्दे में बहती हुई नदिया को तो रोकना चाहता हूँ पर झिझक सी होती है आंसू पोंछने में कई मशक्कतों के बाद एक घर बना था एक मिनट भी नहीं लगा उसे तोड़ने में आफतों का इतना बड़ा समन्दर है पास में हैं बहुत वक़्त लगेगा अभी इसे सूखने में बहुत सारे ज़ख्म हैं मेरे शरीर के दरम्यान अब दर्द नहीं होता है इन्हें खरोचने में हालत के हवाले हो गए हैं अब सारे लम्हे कुछ फायदा नहीं अब इनको सोचने में कुछ नया कुछ पुराना हाल हो गया है इस तरह की परत सी जम गई है ये राज़ खोलने में राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '

एक शाम..............

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इस शाम की महफ़िल में एक और तरन्नुम गा लिया दाद देते हैं की शायरी की सब ,पर हाल-ए-दिल छुपा लिया चुभती हुई ख़ामोशी नज़रों में भी भर गई है बातों की एक रोशनी को हमने बुझा दिया लफ्ज़ जुबाँ पर आने से यूँ टूट रहे हैं कि उनकी बेबसी को भी दिल में दबा दिया कितने वक़्त के साए हमारे पास हैं अब ख़त्म हो गया वो दौर जो ज़िन्दगी ने भुला दिया आँखों में जलते हैं सपनों के गलियारे बेबसी ने ज़िन्दगी से सपनो को हटा दिया क़तरा - क़तरा एक हँसी की बूँद कहाँ है हमने तो मुस्कुराहटों को भी रुला दिया बहुत से अँधेरे बिखरी हवाओं में उड़ भी गए रात के धुएँ ने हमको ये बता दिया धुल पड़ी है उन बेघर अरमानों पर भी जिनके तिनकों से बने घर को हमने गिरा दिया राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '

खालीपन

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आज खुश है दिल कि सब कुछ है फिर किस बात की कमी है शायद इस मुस्कुराते चेहरे के पीछे ग़म भरे अश्कों की नमी है मैं लौट कर ही इन आंसुओं को पोंछ पाऊंगा पर अभी वक़्त की बहुत कमी है नाराज़गी तो होगी ही जब बहुत इंतज़ार हुआ आखिर वक़्त की सुइंयाँ भी कब थमी हैं मैं क्या करूँगा इस शान-ओ-शौकत का मरने के लिए काफी दो मीटर ज़मीं है गर्म फिजाओं का आलम बड़ा सुकून भरा है हैरान हूँ कि इस पर भी पत्तियों में शबनमी है खालीपन है ज़िन्दगी में अब कुछ बचा नहीं और जज्बातों में केवल बर्फ जमी है राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

सब्र ज़िन्दगी का

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कुछ नाम लिखे थे कागज़ में कुछ मिट गए कुछ रह गए साज़ छेड़ने गए हम शहर में बेरंग लौटे वहाँ से घर में वहाँ कुछ सिसकते गीत गाए कुछ अश्कों के संग बह गए अजब सा माहौल है इस हसीन शाम का शामिल हर शख्स यहाँ बड़े नाम का पर कोई नहीं है साथ खुद के सब अपने दर्द को छुप कर सह गए वजूद भी खो गया मेरा अपना ढूंढा उसे दर-ब-दर कितना आशियाँ था जो भी मेरा दुनिया में उसके ज़र्रे भी आंधियों से ढह गए महफूज़ है सारे लम्हे यादों में पर दम तोड़ रही है रोशनी चरागों में कोई नहीं है मेरा हमकदम यहाँ सिर्फ मैं और मेरा दर्द तन्हा रह गए बस!बहुत बर्दाश्त कर लिया ग़मों को अब आने दो इन ख़ुशी के मौसमों को सब्र ज़िन्दगी का हम झेलते रहे सोचते हैं की सारे लम्हे बेवजह गए राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

तस्वीर

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मंजिलों की तलाश में इधर -उधर भटकता हूँ क्या है मेरी हकीकत इसी सोच में आजकल रहता हूँ ग़मगीन चेहरा और गहरी उदासी ज़रूरत है आंसुओं की ज़रा सी ऐसे ही एहसास अब दिखाकर चलता हूँ तकल्लुफ़ भरा ये मंज़र मुझसे बिछड़ता नहीं मेरा ज़मीर अब मुझसे लड़ता नहीं कि आजकल मैं झूठ के नकाब पहनता हूँ एक रंग से मैं कभी नहीं रंगता हज़ारों से भी  मैं नहीं बनता क्योंकि मैं हर समय शख्सियत बदलता हूँ दिमाग में कुछ था पर कहा कुछ और कौन करेगा अब मेरी बातों पर गौर कि मैं भी अब  धोखे से बच  निकलता हूँ एक डिबिया काजल की अपने पास रखी है उसी पर सभी की निगाहें लगी हैं क्योंकि उसीमे अपनी तस्वीर रखता हूँ राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '

हवाओं से गुज़ारिश

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हवाओं से गुज़ारिश है कि वो बहती रहें, मौसम से यूं ही गुफ्तगू करती रहें। मिज़ाज कुछ रूखा सा है, मेरे अक्स का, कि अपनी ख़ैरियत का ये वास्ता देता है। ये गौर करने वाली बात है कि मेरा जुनून ही मुझे दिलासा देता है। फिर चाहे कितनी ही मुश्क़िलें बढ़ती रहें। कुछ लफ्ज़ हैं जो बेबसी के पन्नों में दबे हैं, उन्हें पलटकर देखना बहुत ज़रूरी है। किसकी फिराक़ में घूमता है मेरा जज़्बा, हौसलों के बगैर उसकी राहें अधूरी हैं। कुछ इसी तरह से मंज़िलों की तलाश चलती रहे। कोई साया पलकों के घर में बंद रहता है, उसे खुले आसमान से महफूज़ रखना है। धुंधली पड़ी हुई यादों की रोशनी को, ज़िंदगी के अंधेरे में महसूस करना है। बस इसी तरह दिनचर्या चलती रहे। ये फलसफा है कि ग़मों को अपना साथी कहो, फिर किसी और के मोहताज क्या होंगे। जो फ़ासले बढ़ चुके हैं हमारे दरम्यान, उनसे हालात फिर नाराज़ क्या होंगे। उसी से ये ज़िंदगी संवरती रहे। राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

ज़िन्दगीनामा

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ज़िन्दगी मैंने तुझसे बहुत कुछ है पाया तेरी ही धुन पर ये सारा गीत है बनाया धूप के क़तरे का निशाँ ढूंढता था खोई मंजिल का धुआं ढूंढता था पर मिला घने अँधेरे का साया छाँव की चाशनी मिलती तो बात थी फ़लक से रोशनी गिरती तो बात थी मगर यादों ने दिल को कड़वा बनाया उखड्ती हुई एक आवाज़ आई दिलों के दरों की वो एहसास लाई उसी में तेरा गीत मैंने है पाया किस्सों के पन्ने भी उड़ से गए हैं बेदर्द साए भी जुड़ से गए हैं उन्ही के ग़मों ने हमें है सताया टूटी खिड़की से जब हम देखते हैं धूलों की बारिश में दिन खेलते हैं ये मौसम न जाने कहाँ से है आया लहर जो ख़ुशी की आगे बढ़ी थी मगर उसके आगे अश्कों की झड़ी थी उसी वक़्त आगे अँधेरा था छाया बूदों के पैमाने को पीते गए हम ख्वाबों के ज़ख्मों को सीते गए हम ये सोचते हैं हमने यहाँ क्या लुटाया न रंगों की रुत है न नरमी का मौसम हुआ बाग़ों के घर में कलियों का मातम हर एक फूल को राह से जब हटाया वक़्त जो गुज़रा था कल की सुबह से यहाँ रात आई उसी की वजह से मेरे दर्द का घेरा उसने बढाया कहीं गलियारों में मेरी परछाई सूखी है वहीँ की दीवारों में तन्

उम्मीदें

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एक बुझती हुई चिंगारी को हवाएं चिराग बना देती हैं वीरान रहता है जो चमन उसे कलियां बाग बना देती हैं बिखरी हैं जो पंखुड़ियां मिट्टीं मे कंकड़ बन कर पसीने की दो बूंद उन्हे गुलाब बना देती हैं झोंका सा कुछ आ गया कहीं पर कभी तो फ़िज़ाएं उसे अपनी अदायगी से अज़ाब बना देती हैं उजली सी किरण सुबह की निकलती है कहीं पर तो वक़्त की सुइयां उसे आफताब बना देती हैं कुछ पन्ने खाली होते हैं ज़िन्दगी की कहानी में मगर लम्हों की दास्तान उन्हे किताब बना देती हैं कई हसरतें दिल में यूं ही बस जाती है उनको पाने का जुनून उन्हे ख्वाब बना देती हैं अपने खराब वक़्त पर अफ़सोस कभी मत करना सब्र और हिम्मत उसे लाजवाब बना देती हैं जब भी कभी चुप्पी घर करने लगे दिल में एक छोटी गुफ्तगू उसे आवाज़ बना देती हैं कभी कभी ज़िंदगी का साज़ बेसुरा हो जाता है पर उम्मीदों की सरगम उसे नया राग बना देती हैं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब '

गलियारा

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गुमान रहा ज़िन्दगी पर बहुत कुछ किया मेरे साथ बस मेरा वजूद ही रहा छूटते हुए नज़ारे हवाओं से रुके कुछ जालसाजी की भीड़ में अच्छे बचे कुछ बस एक रूह का निशाँ ही रहा राग-बैराग तरंगे रहती हैं आसपास पानी के छींटों में और सूखे के साथ सरगर्मियों से आखिरी तक लड़ता रहा यादें बहुत सी सिरहाने पर सहेजी थी मगर वक़्त की उन पर बड़ी बेरुखी थी झूठी आस से जीवन बढ़ता गया आग का क्या है जलेगी और जलाएगी ये तो वक़्त है इसकी मार बड़ी सताएगी सोचने से क्या मिला जो सोचता ही रहा रंगहीन किस्से और कुछ कड़वे सच रखती है शामें मेरे शामियाने में अब मैं हूँ जो नींद से ज़िद करता रहा गफ़लत में है सांस कि एक आसरा है घर तो छूट चूका है बस एक गलियारा है सबसे दूर खुद से मिलने को चलता रहा राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'

लफ्ज़

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भरे हुए लफ़्ज़ों से नज़्म बनती है खाली तो ये सारे चेहरे हैं आँच से बचता फिरता रहा मैं कभी उठता कभी गिरता रहा मैं हर एक कदम पर पहरे हैं अभी ही तो आया हूँ सहरा के दर से पटकने लगा हूँ मैं सर को ही सर से सवालों से घिरकर अकेले हैं बहुत तलाशा बहस की जड़ों को कहूँ भी तो क्या मेरे फैसलों को हम भी जगह पर ठहरे हैं साजों की महफ़िल सजा तो रखी है मगर ग़म की रातें दबाकर रखी हैं राज़ दिलों के भी गहरे हैं   पलटते नहीं है ये लम्हों के मरहम सांचे ढलता रहा है ये मौसम दिन काले हैं या सुनहरे हैं बंद करो इस फ़िज़ूल की बकवास को सुनाऊंगा कहानी इसकी भी बाद को अभी तो जाने के फेरे हैं राजेश बलूनी 'प्रतिबिम्ब'